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ज्यों था त्यों ठहराया
एक बार आमों का मौसम था और मैं शिविर लिया, भूरिवाई आ गई। वह दो टोकरियां भर कर आम ले आई। मैंने कहा, इतने आम में क्या करूंगा? एक आम दो आम बहुत होते
हैं।
उसने कहा, आपको पता नहीं बाप जी, प्रसाद बनेगा !
मैं घबड़ाया कि यह प्रसाद जरा मुश्किल का होने वाला है। और उसके पच्चीस तीस भक्त भी मौजूद थे, वे सब आ गए और प्रसाद बनना शुरू हो गया ! वह एक आम को मेरे मुंह में लगाए, इधर मैं एक घूंट भी ले नहीं पाया आम से कि आम प्रसाद हो गया, वह गया ! और इतनी जल्दी पड़ी प्रसाद की, क्योंकि वे पच्चीस लोगों तक पहुंचाने हैं आम, और ज्यादा देर न लग जाए, तो आम में से पिचकारी छूट जाए मेरे मुंह पर मेरे कपड़ों पर सब आम ही आम हो गया! मेरे कंठ में तो शायद एक आम भी पूरा नहीं प्रसाद हो गया। वह खुद चखे और फिर भक्तों में बंटता जाए, आम। मैंने उससे कहा, भूरिबाई, आम के मौसम में अब कभी बड़ा उपद्रव है!
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गया होगा। वह दो टोकरियां बंटता जाए, पहुंचता जाए शिविर नहीं लूंगा। यह तो
मगर उसको फिक्र नहीं, तरोबोर कर दिया उसने आम के रस से मुझे उसका प्रेम अदभुत था! अपने ढंग का था, अनूठा था। उसे लौटना नहीं पड़ेगा जगत में वह सदा के लिए गई। चुप मा चुप्प समाय! वह समा गई । सरिता सागर में समा गई। कुछ उसने किया नहीं, बस चुप रही और उसके घर जो भी चला जाता, उनकी सेवा करती किसी की भी सेवा करती। और चुपचाप, मौन
अदभुत महिला थी। यूं कुछ प्रसिद्ध महिलाएं हैं भारत में, जैसे आनंदमयी, मगर भूरिबाई का कोई मुकाबला नहीं। प्रसिद्धि एक बात है, अनुभव दूसरी बात है।
यह सूत्र प्यारा है। इसे खयाल रखना। इस सूत्र को तुम समझ लो, तो समझने को कुछ और शेष नहीं रह जाता है।
योग प्रीतम का गीत, वेदांत भारती, तुम्हारे लिए उपयोगी होगा-
भीतर का राग जगाओ तो कुछ बात बने ध्यान का चिराग जलाओ तो कुछ बात बने
जल जाए अहंकार दमक उठो कुंदन से ऐसी इक आग जलाओ तो कुछ बात बने बाहर की होली के रंग कहां टिकते हैं शाश्वत के फाग रचाओ तो कुछ बात बने बोते बबूल अगर बींचेंगे कांटे ही खुशबू का बाग लगाओ तो कुछ बात बने टूटें सब जंजीरें अंतर- पट खुल जाएं भीतर वह राग जगाओ तो कुछ बात बने गैरों की यारी में खोते हो पतियारा
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