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ज्यों था त्यों ठहराया
सहा
यह तो बड़ी राजनीति हो गई। यह तो कुछ सनातन धर्म न रहा। यह तो धर्म भी न रहा, सनातन की तो बात ही छोड़ दो। इसमें तो कुछ धार्मिकता भी न रही; यह तो पद का मोह रहा। छोड़ो ऐसा पद जिसके कारण गलत काम करना पड़ रहा है। इतनी धार्मिकता का सबूत तो दो। छोड़ो ऐसा संगठन, जिसके कारण विरोध करना पड़ रहा है। उप-प्रमुख बने रहने के लिए इतना रस है! अजीब लोग हैं और अजीब झूठों में पड़े हैं। अजीब बेईमानियां में उलझे हुए हैं। और बेईमानियों को बड़े अच्छे-अच्छे शब्दों में ढाल रहे हैं, ढांक रहे हैं। फिर इनके झूठों के पर्दे के बीच से ये जो भी देखते हैं, वह भी विकृत हो जाता है। ये मुझे समझ नहीं पाते। कैसे समझ पाएंगे? इनके आग्रह ही, इनके पक्षपात ही, इनके पूर्वाग्रह ही बाधाएं बन जाते हैं। सुना है मैंने, ढब्बू जी किसी सरकारी कार्यवश एक सप्ताह के लिए दिल्ली गए थे। दूसरे ही दिन वापस लौट आए। मैंने पूछा, आश्चर्य है कि आप तो सात दिन के लिए जरूरी काम के लिए दिल्ली गए थे, दो ही दिन में कैसे लौट आए! बोले, क्या बताएं, साले दिल्ली के लोगों को मेरे आने की खबर पहले से ही हो गई थी। अतः उन्होंने मेरी बेइज्जती करने के लिए जगह-जगह स्टेशन पर ही मेरे विरोध में पोस्टर चिपका दिए थे। इसलिए तो मैं स्टेशन से ही वापस लेकर टिकट, तुरंत लौट आया। मेरा आश्चर्य और बढ़ा। मैंने कहा, मैं कुछ समझा नहीं। मामला जरा विस्तार से बतलाइए! मेरे बार-बार पूछने पर उन्होंने बामुश्किल सकुचाते हुए कहा, दिल्ली के कुछ गुंडों, लफंगों और असामाजिक तत्वों ने पोस्टर चिपकाए थे, जिन पर लिखा था--आज ही देखिए, चूकिए नहीं। आ गया, आ गया आपके शहर में--जोरू का गुलाम! वे तो बेचारे किसी फिल्म का पोस्टर चिपकाए थे, मगर ये जोरू के गुलाम हैं ढब्बू जी। ये समझे कि मेरे लिए पोस्टर चिपकाए गए हैं--आ गया, आ गया! आज ही आपके शहर में, जोरू का गुलाम! स्टेशन से ही लौट आए! लोग अपने ही पक्षों से, अपने पक्षपातों से, अपनी धारणाओं से देखते हैं, इसलिए सत्य से चूक जाते हैं। मैं सीधी-साफ बात कह रहा हूं--बिना लाग-लगाव के। सिर्फ वे ही समझ सकते हैं। जिनमें इतना साहस हो कि अपने पक्षपात और पूर्वाग्रहों को एक तरफ हटा कर रख दें।
और मजा तो यह है, इन्हीं पक्षपातों के कारण लोग दुखी हैं। मगर फिर भी अपने दुख को भी लोग पकड़ लेते हैं। अपना दुख! अपना है, तो उससे भी मोह बना लेते हैं। दो मित्र सड़क पर जा रहे थे। एक मित्र चलता और बीच-बीच में रुक जाता। दूसरे मित्र ने पूछा, क्या आपा जूता तंग है, कि आप ठीक से चल नहीं पा रहे? पहला बोला, हां, वाकई जूता तंग है। दूसरे मित्र ने कहा, तब तो बड़ा कष्ट हो रहा होगा? पहला बोला, हां, थोड़ा तो है ही, पर इससे लाभ भी बहुत है। दूसरा मित्र बोला, लाभ! वह क्या है?
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