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ज्यों था त्यों ठहराया
आनंद की आकांक्षा इस बात का सबूत है कि कभी हमने आनंद जाना है। जिसे जाना न हो, उसकी आकांक्षा कैसी! जिसे कभी चखा न हो, स्वाद न लिया हो, उसकी अभीप्सा असंभव है। जाना है कभी; स्वाद अब भी हमारी जबान पर है। अभी भी भूली नहीं। कितनी ही बिसर गई हो बात, बिलकुल नहीं भूल गई, बिलकुल नहीं मिट गई! कितने ही दूर की हो गई हो आवाज, अब भी आती है। अब भी पुकार उठती है, मगर साहस नहीं होता फिर--इस विराट सागर में डूबने का। जब तट पर इतनी कठिनाई है, तो सागर में पता नहीं और क्या मुश्किल हो जाए! मछली सागर में फिर पहुंच जाए, तो ज्यूं था त्यूं ठहराया! हट गई थी स्वभाव से, फिर वापस लौट आई। फिर आनंद है। फिर उत्सव है। फिर हर रोज होली है, हर रोज दीवाली है।
और अब पहली बार पहचान होगी। सागर में पहले भी थी; सागर में अब भी है। मछली भी वही, सागर भी वही, फिर भी बात बदल गई। पहले अज्ञान था, अब बुद्धत्व है। यह शीर्षक एक अपूर्व फकीर रज्जब जी के वचन का एक अंश है। पूरा वचन खयाल में लोगे, तो यह अंश जल्दी समझ में आ सकेगा ज्यूं मुख एक देखि दुई दर्पन, गहला तेता गाया। जन रज्जब ऐसी बिधि जानें, ज्यूं था त्यूं ठहराया।। ज्यूं मुख एक देखि दुई दर्पन...! चेहरा तो एक है, लेकिन दर्पण में झांकोगे, तो दो हो जाता है। और दर्पण में झांके बिना चेहरे का पता नहीं चलता। सो मजबूरी है। झांक कर ही पता चलेगा। दर्पण में झांकना तो होगा। मगर झांकते ही जो एक था, वह दो हो जाता है! इसलिए खतरा भी है। अनिवार्यता और खतरा साथ साथ। अनिवार्यता--कि बिना दर्पण में झांके पता ही न चलेगा कि मेरा चेहरा कैसा है। नाक-नक्शा क्या है! मैं कौन हूं? कहां से हूं? क्या है मेरा स्वरूप? दर्पण में तो झांकना ही होगा। लेकिन झांकते ही एक दुविधा खड़ी हो जाती है, दुई खड़ी हो जाती है। मैंने सुना है: अमृतसर से एक रेलगाड़ी दिल्ली की तरफ रवाना हुई। सरदार विचित्तर सिंह को जोर से लघुशंका लगी थी। जाकर सरदारी-झटके से संडास का दरवाजा खोल दिया। झांक कर देखा; दर्पण में अपना चेहरा दिखाई पड़ा! जल्दी से कहा, माफ करिए सरदार जी! दरवाजा बंद कर दिया! मगर लघुशंका जोर से लगी थी। पांच मिनट सम्हाला, दस मिनट सम्हाला। मगर यह भीतर जो सरदार घुसा है, निकला ही नहीं, निकला ही नहीं! फिर जा कर दरवाजा खटखटाया, मगर जवाब भी न दे! फिर खोला। सरदार मौजूद था! कहा, माफ करना सरदार जी! फिर बंद कर दिया। लेकिन अब सम्हालना मुश्किल हो गया। संयम की भी सीमा है! तभी कंडक्टर आ गया। तो विचित्तर सिंह ने कहा कि हद्द हो गई! एक आदमी अंदर घुसा है, सो घंटे भर से निकलता ही नहीं है! कंडक्टर ने कहा, देखो, मैं जाता हूं।
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