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ज्यों था त्यों ठहराया
जिन्होंने दुख को अनुभव किया, उन्होंने फिर दुख से मुक्त होने की चेष्टा भी की। करनी ही पड़ेगी। बुद्ध छह वर्ष अथक तपश्चर्या किए, ध्यान किए। और एक दिन परम बुद्धत्व को उपलब्ध हए, तब महासुख के झरने फूटे। तब अमृत-रस बरसा। तब जीवन का राज खुला, रहस्य खुला। तब भीतर का सूरज उगा। ध्यान मिला, तो भीतर का धन मिला। समाधि मिली, तो सब समस्याओं का समाधान मिला। फिर कोई दुख न रहा। फिर कोई संताप न रहा। यह सूत्र बिलकुल ठीक है--यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः। बड़ा विरोधाभासी सूत्र है कि मूढों की गति और परम बुद्धों की गति एक अर्थ में समान है। मूढ भी सुखी, बुद्ध भी सुखी। मगर उनका सुख बड़ा अलग-अलग। मूढ बेहोशी के कारण सुखी; बुद्ध होश के कारण सुखी। जमीन आसमान का भेद है। ताबुभौ सुखमेघेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः। लेकिन जो बीच में हैं, मध्य में हैं, उनको बड़ा क्लेश है। लेकिन मध्य में आना ही होगा। पशुता छोड़नी होगी; मनुष्य होना होगा। मनुष्य ही होगा; मनुष्य मध्य में होगा। लेकिन उस दुख से गुजरे बिना कोई बुद्धत्व तक नहीं जा सकता। वह कीमत चुकानी पड़ती है। जो उस कीमत को चुकाने से बचेगा, वह पशुता के जगत में ही, मूढता के जगत में ही उलझा रह जाता है।
और तुम यही कर रहे हो। अधिकतम लोग यही कर रहे हैं। किसी तरह अपने को भुलाए रखो; उलझाए रखो। जाल बुनते रहे उलझाव के। और कल पर टालते रहो--मनुष्य होने की संभावना को। कल मौत आएगी। तुम बहुत बार जन्मे हो और बहुत बार ऐसे ही मर गए! अवसर तुमने कितना गंवाया है-- हिसाब लगाना मुश्किल है! अब और न गंवाओ। यह कीमत चुका दो। यह दुख से थोड़ा गुजरना पड़ेगा। और जितने जल्दी चुका दो, उतना बेहतर है। यह दुख ही तपश्चर्या है। यह दुख ही साधना है। इस दुख की सीढ़ी से चढ़ कर ही कोई परम सुख को उपलब्ध हुआ है। और कोई उपाय नहीं है। बच कर नहीं जा सकते। इसलिए शास्त्र कहते हैं कि देवता भी देवलोक से निर्वाण को नहीं पा सकते। पहले उन्हें मनुष्य होना पड़ेगा। मनुष्य हुए बिना कोई बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि मनुष्य चौरस्ता है। देवता सुखी हैं। शराब पी रहे हैं। अप्सराओं को नचा रहे हैं। और उसी तरह के उपद्रव में लगे हैं, जिसमें तुम लगे हो। कुछ फर्क नहीं है! थोड़ा बड़े पैमाने पर हैं उनका जरा। उनकी उम्र लंबी होगी। उनकी देह सुंदर होगी। मगर सब यही जाल है, जो तुम्हारा है। यहीर ईष्या। यही वैमनस्य। तुमने कहानियां तो पढ़ी हैं कि इंद्र का सिंहासन बड़े जल्दी डोल जाता है। कोई तपश्चर्या करता है, इंद्र का सिंहासन डोला! घबड़ाहट चढ़ती है कि यह आदमी कहीं इंद्र न हो जाए! वही राजनीति, वही दांव-पेंच! और इंद्र करते क्या हैं? भेज देते हैं अप्सराओं को--मेनका को, उर्वशी को कि भ्रष्ट करो इस तपस्वी को। यह भ्रष्ट हो जाए, तो मैं निश्चिंत सोऊं। मगर
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