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को अपने जाल में फंसा लेती है, फिर उसका मनमाना उपयोग करती है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्त्री को राक्षसी से उपमित किया गया है। 105
उत्तराध्ययन की वृहद् वृत्ति में वृत्तिकार कहते हैं कि जिस प्रकार राक्षसी समस्त रक्त को पी जाती है, वैसे ही स्त्रियां भी मनुष्य के ज्ञान आदि गुणों तथा जीवन और धन का सर्वनाश कर देती हैं। वृत्तिकार कहते हैं -
वातेद्धृतो दहति हुतभुग्देहमेकं नाराणां, मत्तो नाग: कुपित भुजगश्चैकदेहं तथैव।
ज्ञानं शीलं विनयविभवौदार्य विज्ञानदेहान्;
सर्वानर्थान् दहति वनिताऽऽमुष्मिकानैहिकांश्च।। 106 इसी टिप्पण में इस तथ्य को पुष्ट करने वाला एक श्लोक उद्धृत किया है -
दर्शनात् हरते चित्तं, स्पर्शनात् हरते बलम।
मैथुनात् हरते वित्तं, नारी प्रत्यक्षराक्षसी।। इस उपमा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं - 'यहां राक्षसी शब्द लाक्षणिक है। अभिधावाचक नहीं है। यह कामासक्ति या वासना का सूचक है। पुरुष के लिए स्त्री वासना के उद्दीपन का निमित्त बनती है, इस दृष्टि से उसे राक्षसी कहा गया है। स्त्री के लिए पुरुष वासना के उद्दीपन का निमित्त बनता है, इस दृष्टि से उसे राक्षस कहा जा सकता है। 107 4.11. शल्य - शल्य के दो अर्थ हैं - कांटा और घाव (अन्तव्रण) शरीर में छोटा सा भी शल्य हो जाए तो वह व्यक्ति को बेचैन कर डालता है। उत्तराध्ययन सूत्र में काम को शल्य कहा गया है क्योंकि काम की चुभन भी निरन्तर बनी रहती है। 108
ज्ञानार्णव कहता है कि प्राणी कामरूप कांटे से पीड़ित होकर इतना अस्थिर हो जाता है कि आसन, शयन, गमन, कुटुम्बीजन, भोजनादि किसी भी कार्य में उसका मन नहीं लगता। 100 4.12. विष - जिसमें मारक शक्ति होती है उसे विष कहते हैं। इसके सेवन से व्यक्ति अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जैन आगमों में अनेक स्थलों पर काम भोगों के लिए विष की उपमा का प्रयोग किया गया है। आचारांग सूत्र में काम भोगों को विष से उपमित किया गया है। सूत्रकृतांग में यह उपमा दो रूपों में मिलती हैं -
(अ) विष मिश्रित खीर - विष मिश्रित खीर देखने में प्रिय लगती है किन्तु खाने के बाद मनुष्य को मार डालती है। उसी प्रकार काम भोग भोगकाल में प्रिय लग सकते हैं किन्तु इनका विपाक अच्छा नहीं होता।
(ब) विष बुझा कांटा- विष से लिप्त कांटा शरीर के किसी भी अवयव से लग जाता है तब वह अनर्थकारी होता है। सूत्रकृतांग सूत्र में स्त्रियों (विषयवासना) को विष बुझे कांटे
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