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जैन आगमों में प्रतिपादित साधना पद्धति व्यवहार का अतिक्रमण नहीं करती। यह सर्व विदित है कि सभी साधकों की क्षमता समान नहीं होती। इसी सत्य को ध्यान में रखते हुए सूत्रकारों ने ब्रह्मचर्य को दो श्रेणियों में विभाजित किया - 1. ब्रह्मचर्य महाव्रत, और 2. ब्रह्मचर्य अणुव्रत।
ब्रह्मचर्य महाव्रत में मैथुन सेवन का आजीवन सर्वत्र प्रत्याख्यान रहता है। यह पांच महाव्रतधारी मुनियों के लिए हैं तथा जो महाव्रत स्वीकार करने में असक्षम हैं उनके लिए अणुव्रत अर्थात् मान्य सामाजिक धार्मिक नियमों के अनुसार स्वयं की विवाहित पत्नी/पति के अतिरिक्त अन्यत्र मैथुन सेवन का प्रत्याख्यान का विधान है। इस प्रकार अणुव्रत के द्वारा व्यक्ति की वासना एक निश्चित स्तर तक सीमित हो जाती है।
ब्रह्मचर्य कब स्वीकारा जाए? इस संदर्भ में जैन सूत्रकारों का मत जब जागे तभी सवेरा का अनुकरण करता है। यौवनावस्था में जब शरीर काम-भोग के लिए सक्षम होता है। उस समय भी ब्रह्मचर्य स्वीकार किया जा सकता है और वृद्धावस्था में भी। प्रश्न हो सकता है कि वृद्धावस्था में ब्रह्मचर्य की क्या उपयोगिता है। शारीरिक क्षमता ही न रहे तब त्याग का क्या लाभ? इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि व्यक्ति का शरीर बूढ़ा हो जाता है पर मन बूढ़ा नहीं होता। वृद्धावस्था में भी जो ब्रह्मचर्य स्वीकार करते हैं जैन आगमों में उसे भी सद्गति का निमित्त कहा गया है।
इस प्रकार आगम साहित्य में ब्रह्मचर्य का विस्तृत वर्णन किया गया है।
ब्रह्मचर्य का प्रतिपक्षी है- अब्रह्मचर्य। पक्ष के सम्पूर्ण अध्ययन के लिए उसके प्रतिपक्ष का अध्ययन अपेक्षित रहता है। जैन आगमों में अब्रह्मचर्य पर भी व्यापक प्रकाश डाला गया है। आगामी द्वितीय अध्याय में अब्रह्मचर्य पर विवेचनात्मक अध्ययन किया जा रहा है।