________________
इन काम-भोगों का त्याग तीन करण (करना, कराना और अनुमोदन करना) तथा तीन योग (मन, वचन और काया) के भिन्न-भिन्न भंग करने पर यह अठारह प्रकार (3x3x2
18) का हो जाता है।
=
-
औदारिक काम भोगों का (1) मन से सेवन न करना (2) मन से सेवन न कराना (3) सेवन करने वाले का मन से अनुमोदन भी न करना। (4) वचन से सेवन न करना (5) वचन से सेवन न कराना (6) सेवन करने वाले का वचन से अनुमोदन भी न करना। (7) काया से सेवन न करना (8) काया से सेवन न कराना (9) सेवन करने वाले का काया से अनुमोदन भी न करना ।
दिव्य (देव-संबंधी) काम - भोगों का ( 10 ) मन से सेवन न करना ( 11 ) मन से सेवन न कराना (12) सेवन करने वाले का मन से अनुमोदन न करना। (13) वचन से सेवन न करना (14) वचन से सेवन न कराना ( 15 ) सेवन करने वाले का वचन से अनुमोदन न करना । (16) काया से सेवन न करना। (17) काया से सेवन न कराना ( 18 ) सेवन करने वाले का काया से अनुमोदन भी न करना।
3.5
ब्रह्मचर्य के सत्ताइस भेद
123
ठाणं एवं दसवैकालिक सूत्र में तीन प्रकार के मैथुन बताए गए हैं (1) दिव्य (2) मानुष्य ( 3 ) तैर्यञ्च इन तीन से विरति को ब्रह्मचर्य कहा है।
यदि प्रत्येक विरति के तीन करण, तीन योग से विकल्प प्रस्तुत किए जाते हैं तो नौ विकल्प होते हैं। इस प्रकार तीन विरति के 27 विकल्प होते हैं।
124
जयाचार्य ने इसका विस्तार किया है उसका सार इस प्रकार हैं
-
देव संबंधी मैथुन सेवन का तीन करण तीन योग से त्याग करने पर 3x3=9 भांगें हुए, इसी प्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च संबंधी के नौ-नौ भंग होने से कुल 27 भंग हो जाते हैं।
125
उपरोक्त अठारह भेद से इसका कोई अर्थभेद नहीं है। वहां तीर्यञ्च एवं मनुष्य संबंधी काम भोग को 'औदारिक' काम भोग के अन्तर्गत लिया है और यहां उन्हें अलग-अलग रखा गया है।
3.6
-
अठारह हजार भेद
ब्रह्मचर्य के उत्कृष्टत: अठारह हजार भेद भी मिलते हैं उसका विस्तृत वर्णन पर्याय विवेचन के अन्तर्गत शील में किया गया है।
4.0
ब्रह्मचर्य की उपमाएं
भारतीय वाङ्मय में जीवन विकास के विविध सूत्रों को अनेक रूपों में निरूपित किया गया है। उन विधाओं में एक विधा है- उपमा । तत्त्व को समझाने का यह एक सरल तरीका है।
26