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काम वासना को सीमित करने का प्रयास है, वह संयम के लिए है और इसलिए उन्होंने इसको ब्रह्मचर्य ही माना है। किन्तु जैन परम्परा में एक गृहस्थ जितना वासना से विरत होता है उतना ही ब्रह्मचर्य है। जितना काम सेवन है वह अब्रह्मचर्य ही है। जैन दर्शन के समान ही गांधीजी भी पुरुष के समान स्त्री को भी ब्रह्मचर्य पालन का अधिकारी मानते हैं। 2.9 आचार्य तुलसी के अनुसार ब्रह्मचर्य
बीसवीं सदी में जैन परम्परा में एक महान क्रांतिकारी संत का अवतरण हुआ - आचार्य तुलसी।
आपने जैन धर्म को व्यापकता देकर जन धर्म बनाने का प्रयास किया। युगीन समस्याओं के समाधान के लिए भी आपने अपनी मौलिक दृष्टि प्रदान की।
ब्रह्मचर्य के संदर्भ में भी आपका चिन्तन व्यापक और आत्म-स्पर्शी है। इसके अर्थ पर प्रकाश डालते हुए आप कहते हैं - ब्रह्म का अर्थ है आत्मा और चर्य का अर्थ है गति। ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ - आत्मा की ओर गति।"
"ब्रह्मचारी वह है जिसकी दृष्टि अन्तर्मुखी है।"
आपकी दृष्टि में ब्रह्मचर्य सर्वोत्कृष्ट साधना है क्योंकि इसके पालन से सर्व व्रतों की साधना स्वयमेव हो जाती है। ब्रह्मचर्य को असंभव मानने वालों के लिए वे कहते हैं- "कूप मेंढक कैसे यह विश्वास करे कि समुद्र कुंए से बड़ा होता है? साधारण मनुष्य कैसे समझे कि यौवन की उद्दाम तरंगों में भी एक शय्या पर रहकर विजय और विजया की तरह ब्रह्मचर्य पाला जा सकता है।" 2.10 पर्याय विवेचन
जैन आगमों में अनेक स्थलों पर ब्रह्मचर्य के अर्थ में अन्य शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। जैसे - कामगुण विरति, काम भोग विरमण, मैथुन विरमण, गुरुकुलवास, काम-विजय, उपस्थ संयम, आत्म रमण, शील आदि।
इनमें से कुछ पर्यायों का विवेचन ब्रह्मचर्य के प्रतिपक्षी अब्रह्मचर्य के पर्याय विवेचन के साथ किया गया है। शेष का विवेचन यहां प्रस्तुत है।
शील - शील शब्द बहुत विराटता को लिए हुए है। शील पाहुड़ के अनुसार पंचेन्द्रिय के विषय से विरक्त होना शील कहलाता है। धवला, अनगार धर्मामृत, प्रशमरति प्रकरणम् में व्रतों की रक्षा को शील कहा गया है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही जैन परम्पराओं में शील के 18 हजार अंगों की चर्चा विभिन्न अपेक्षाओं से की गई है।
1. स्वद्रव्य परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा से -
दसवैकालिक सूत्र की चूर्णि एवं टीका तथा उत्तराध्ययन की वृहद् वृत्ति में इस भेद को समझाने के लिए एक गाथा उपलब्ध होती है। वह इस प्रकार है -
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