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शील, तप और गुणों का समूह फूटे घड़े की तरह संभग्न हो जाता है, दही की तरह मथित हो जाता है, आटे की भांति चूर्ण-चूरा-चूरा हो जाता है, कांटे लगे शरीर की तरह शल्ययुक्त हो जाता है। पर्वत से लुढ़की शिला के समान लुढ़का-गिरा हुआ, चीरी या तोड़ी हुई लकड़ी की तरह खण्डित हो जाता है तथा दुरावस्था को प्राप्त और अग्नि द्वारा दग्ध होकर बिखरे काष्ठ के समान विनष्ट हो जाता है।
आगे सूत्रकार कहते हैं कि एक ब्रह्मचर्य की आराधना अखण्ड रूप से करने पर शेष सम्पूर्ण व्रत अखण्ड रूप से पालित हो जाते हैं। इसके साथ अनेक गुण जैसे- शील, समाधान, तप, विनय, संयम, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति, निर्लोभता, आदि स्वयं आ जाते हैं।
ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण चारित्र का प्राणभूत तत्त्व है। इसके न होने पर बाकी गुण होने पर भी वे क्लेश के कारण ही बनते हैं।
आचार्य भिक्षु महाव्रतों के अंतरसंबंध के संदर्भ में कहते हैं कि पांचों महाव्रतों को एक साथ ग्रहण करना पड़ता है, वैसे ही उनका पालन भी युगपत् रूप से करना पड़ता है। जो एक महाव्रत को भंग करता है वह सबको भंग करता है। उन्होंने इस तथ्य को निम्नोक्त दृष्टान्त से इस प्रकार समझाया है - "एक भिखारी को पांच रोटी जितना आटा मिला। वह रोटी बनाने बैठा। उसने एक रोटी पका कर चूल्हे के पीछे रख दी। दूसरी रोटी तवे पर सिक रही थी। तीसरी अंगारों पर थी। चौथी रोटी का आटा उसके हाथ में और पांचवीं रोटी का आटा कठौती में था। एक कुत्ता आया और कठौती से आटे को उठा ले गया। भिखारी उसके पीछे दौड़ा। वह ठोकर खाकर गिर पड़ा। उसके हाथ में जो एक रोटी का आटा था, वह गिरकर धूल-धूसरित हो गया। वापस आया, इतने में चूल्हे के पीछे रखी रोटी बिल्ली ले गई। तवे की रोटी तवे पर ही जल गई। अंगारों पर रखी रोटी जलकर खत्म हो गई। एक रोटी का आटा जाने से बाकी चार रोटियां भी चली गई। कदाचित् एक रोटी के नष्ट होने पर अन्य रोटियां नष्ट न भी हों, पर यह सुनिश्चित है कि एक महाव्रत के भंग होने पर सभी महाव्रत भंग हो जाते हैं।" 70 2.6 ब्रह्मचर्य का ऐतिहासिक विकास
जैन परम्परा में अस्तित्व की दृष्टि से ब्रह्मचर्य सार्वकालिक रहा है। किन्तु इसके स्वरूप में समय-समय पर परिवर्तन अवश्य देखा गया है। प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासनकाल में इसे पृथक् महाव्रत के रूप में रखा गया तथा मध्यवर्ती बाइस तीर्थंकरों के शासन काल में इसे बहिद्धादान याम के अन्तर्गत रखा गया।
प्रथम तीर्थंकर के शासनकाल में मुनि ऋजु जड़ (अत्यन्त सरल व तत्काल समझने में अक्षम) होते हैं। इन्हें समझाने के लिए विस्तार की आवश्यकता होती है। इसलिए भगवान ऋषभ ने ब्रह्मचर्य पालन पर सम्यक् जोर देने के लिए सर्व मैथुन विरमण महाव्रत को पृथक रूप से
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