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एकत: सर्व पापानि, मद्यं मांसं च एकत:।। आचार्य भिक्षु ने शील की नव बाड़ में ब्रह्मचर्य की महत्ता को इस प्रकार उजागर किया
कोड़ केवली गुण करै, रसना संहस वणाय।
तो ही ब्रह्मचर्य नां गुणघणा, पूरा कह्या न जाय।। " 2.0 ब्रह्मचर्य का स्वरूप
जैन परम्परा में ब्रह्मचर्य के स्वरूप को विभिन्न ग्रन्थों में आई हुई परिभाषाओं, भेदप्रभेद एवं उपमाओं से जाना जा सकता है। 2.1 ब्रह्मचर्य की अर्थ यात्रा
सामान्यत: ब्रह्मचर्य का अर्थ "मैथुन विरति' ही अधिक प्रचलित है किन्तु जैन वाङ्मय में विभिन्न स्थलों पर विभिन्न रूपों में इसका प्रयोग मिलता है। आचारांग भाष्य में ब्रह्मचर्य के अर्थ इस प्रकार किए गए हैं - (1) आत्मविद्या या आत्म विद्याश्रित आचरण, विरति। (2) आचार, मैथुन विरति- उपस्थ संयम, गुरुकुलवास (3) आचार, सत्य और तप (4) आत्म रमण, उपस्थ संयम तथा गुरुकुल वास।"
सूत्रकृतांग सूत्र में ब्रह्मचर्य का अर्थ आचार्य महाप्रज्ञ ने इस प्रकार किया है- ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ केवल वस्ति - नियमन ही नहीं है, ब्रह्म-आत्मा में रमण करना ही इसका प्रमुख अर्थ है। इसी सूत्र में ब्रह्मचर्य शब्द का प्रयोग 'गुरुकुलवास" के रूप में भी मिलता है। चूर्णिकार ने ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ किए हैं
(1) सुचारित्र (2) नौ गुप्तियुक्त मैथुन-विरति (2) गुरुकुलवास। इसके अतिरिक्त आचार, आचरण, संवर, संयम और ब्रह्मचर्य को चूर्णिकार ने एकार्थक माना है। 35
स्थानांग और समवायांग सूत्र में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के लिए ब्रह्मचर्य नाम प्रयुक्त हुआ है। ठाणं सूत्र की वृत्ति में ब्रह्मचर्य का अर्थ 'कामभोग विरति' किया गया है। " समवायांग में साधु के 27 गुणों में चौथा ब्रह्मचर्य के लिए 'मैथुन विरमण' शब्द का प्रयोग किया गया है। 38
समवायांग सूत्र के वृत्तिकार अभयदेव सूरी ने ब्रह्मचर्य का अर्थ कुशल अनुष्ठान तथा संयम किया है। उन्होंने इन अनुष्ठानों का वर्णन आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों में प्रतिबद्ध माना है। इस उपलक्षण से आचारांग के नौ अध्ययनों को "ब्रह्मचर्य" शब्द से अभिहित किया गया है। इस सूत्र में 'आचारांग सूत्र'' के लिए भी ब्रह्मचर्य शब्द प्रयुक्त हुआ