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विशाद ग्रस्त या उन्माद ग्रस्त भी हो सकता है। इन पर ध्यान करने से तृतीय नेत्र का जागरण
कर काम का दहन किया जा सकता है। काम अकाम में बदल जाता है।
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3. 11.6. शक्ति केन्द्र रीढ़ की हड्डी का नीचला हिस्सा शक्ति केन्द्र कहलाता है। इसे मूलाधार चक्र के नाम से भी जाना जाता है। योग परम्परा के अनुसार यह प्राण शक्ति के संग्रह का स्थल है। इस पर ध्यान करने से यह सक्रिय होता है और प्राण का प्रवाह मेरु रज्जु के माध्यम से ऊपर की ओर प्रवाहित होता है। बाबा रामदेव के अनुसार इस केन्द्र पर ध्यान करने से साधक ऊर्ध्वरेता बन जाता है। 3.11.7 स्रोत दर्शन आचारांग सूत्र में काम-विजय की साधना के लिए ध्यान का क प्रयोग है स्रोत दर्शन स्रोत का अर्थ है इन्द्रियों और इन्द्रिय विषयों के आसेवन में प्रयुक्त शरीर के अंग। आचारांग सूत्र के भाष्यकार ने इन स्रोतों का विवेचन इस प्रकार किया है - शरीर के ऊर्ध्वभाग में सात स्रोत हैं एक मुख, दो कान, दो नेत्र, दो नासिकाएं दो स्तन हैं। शरीर के अधो भाग में गुदा, लिंग और रक्तवहा (योनि) हैं। इनकी प्रेक्षा करने से इनके प्रति राग भाव का विलय होता है। फलतः काम विजय की साधना सरल हो 3. 11.8 संधि दर्शन आचारांग सूत्र में ब्रह्मचर्य विकास के लिए एक प्रयोग है 'संधि का अर्थ है - हड्डियों का जोड़। शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र है। उसे विरक्ति होती है। भाष्यकार ने शरीर में एक सौ अस्सी संधियों का उल्लेख किया है। चौदह महासंधियां हैं तीन दाएं हाथ की संधियां कंधा कुहनी और पहुँचा। तीन बाएं हाथ की संधियां। तीन दाएं पैर की संधियां कमर, घुटना और गुल्फ तीन बाएं पैर की संधियां, एक गर्दन की संधि, एक कमर की संधि ।
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शरीर के मध्य भाग में
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जाती है।
सन्धि दर्शन । देखकर उससे
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3.11.9 लेश्या ध्यान - उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचर्य विकास के लिए लेश्या ध्यान का प्रयोग
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मिलता है। व्यक्ति की लेश्याओं का उसके चिंतन और आचार व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रशस्त लेश्याएं चेतना का ऊर्ध्वारोहण करती हैं तो अप्रशस्त लेश्याएं पतन करती हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य की सुदृढ़ता के लिए अप्रशस्त लेश्याओं का वर्जन एवं प्रशस्त लेश्याओं के ध्यान का निर्देश हैं।
प्रेक्षाध्यान साधना पद्धति के अनुसार स्वास्थ्य केन्द्र एवं विशुद्धि केन्द्र पर नीले रंग तथा ज्योति केन्द्र पर श्वेत रंग का 5 से 10 मिनट तक ध्यान करने से वासनाएं अनुशासित होती हैं।
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3.11.10. दीर्घ श्वास प्रेक्षा- श्वास का हमारी साधना के साथ बहुत गहरा संबंध है। जब श्वास मंद, दीर्घ या सूक्ष्म होता है तो मन शान्त और वासनाएं नियंत्रित रहती हैं। श्वास जब छोटा होता है तब वासनाएं और उत्तेजनाएं उभरती हैं, मानसिक चंचलता बढ़ती है। आचार्य
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