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स्वकथ्य
यदि मुझसे पूछा जाए श्रुतसागर के अनन्तानन्त साम्राज्य में पवित्रम शब्द कौन सा है ? तो बिना शोध के ही मेरे मुँह से अविलम्ब निकलेगा - ब्रह्मचर्य।
विश्व के सभी धर्म सम्प्रदाय ही नहीं, स्वास्थ्य शास्त्र और आधुनिक विज्ञान भी ब्रह्मचर्य के महत्त्व को स्वीकार करते हैं। आज तो एकान्त भोगवादी भी ब्रह्मचर्य की सत्ता को स्वीकार करने लग गए हैं।
मेरा ब्रह्मचर्य के प्रति आकर्षण सम्भवतः पूर्व जन्म के किसी संस्कार के कारण ही रहा है। जब छोटा था, स्कूल की पुस्तकों के अतिरिक्त कोई अध्ययन नहीं था और न ही कोई योग साधना का प्रशिक्षण। तब भी न जाने किस प्रेरणा से दीर्घ श्वास, कुम्भक, नासाग्रदृष्टि, खेचरी मुद्रा आदि प्रयोगों को खेल-खेल में किया करता था। ब्रह्मचर्य साधना सहज रूप से चलती रही। किन्तु इसके विस्तृत अध्ययन का अभाव ही था।
मुनिश्री धर्मेशकुमारजी की प्रेरणा से 'भारतीय वाङ्मय में ब्रह्मचर्य' पर शोध कार्य करने से ब्रह्मचर्य को विस्तृत रूप से समझने का अवसर मिला। जैन वाङ्मय में भी ब्रह्मचर्य पर विस्तृत विवेचना मिलती है। विस्तार-भय की दृष्टि से 'भारतीय वाङ्मय में ब्रह्मचर्य' में पूरी सामग्री समग्रता से प्रस्तुत नहीं की जा सकी। इस कमी को पूर्ण करने की दृष्टि से यह चिन्तन आया कि 'जैन वाङ्मय में ब्रह्मचर्य' को पृथक् रूप से प्रस्तुत किया जाए। इसी शुभ चिन्तन से जैन वाङ्मय में ब्रह्मचर्य का और अधिक विस्तृत एवं सूक्ष्म अध्ययन समग्रता के साथ करने की प्रेरणा मिली। जैन परम्परा में ब्रह्मचर्य के विकीर्ण सूत्रों को प्रस्तुत ग्रन्थ में छः अध्यायों में गुम्फित किया गया है।
प्रथम अध्याय में ब्रह्मचर्य के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए इसके स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। विभिन्न दृष्टिकोणों से ब्रह्मचर्य के अर्थ एवं परिभाषाएं देकर ब्रह्मचर्य के संदर्भ को स्पष्ट किया गया है। ब्रह्मचर्य के विभिन्न भेदों के साथ विभिन्न स्थलों पर दी गई इसकी उपमाओं का रोचक प्रस्तुतिकरण किया गया है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य की दुष्करता को स्पष्ट करते हुए इसके प्रयोजन एवं साधक की अर्हताओं का निरूपण किया गया है।
द्वितीय अध्याय के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य के प्रतिपक्षी अब्रह्मचर्य का प्रतिपादन है। प्रथमतः अब्रह्मचर्य का अध्ययन क्यों? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए, इसके स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया गया है। आगमिक दृष्टि से अब्रह्मचर्य के कारक तत्त्वों का विवेचन करते हुए अब्रह्मचर्य के लिए प्रयुक्त विभिन्न मर्मभेदी उपमाओं को प्रस्तुत किया गया है।
तृतीय अध्याय में ब्रह्मचर्य साधना से होने वाले लाभ को चार विभागों में बांट कर प्रस्तुत किया गया है। वे विभाग हैं - 1. व्यवहारिक लाभ, 2. मानसिक लाभ, 3. भावात्मक लाभ, 4. आध्यात्मिक लाभ। इसके दूसरे चरण में अब्रह्मचर्य से होने वाली हानियों का वर्णन है। इसे निम्न छः विभागों में बांटा गया है - 1. शारीरिक हानि, 2.मानसिक हानि, 3. नैतिक एवं चारित्रिक हानि, 4. व्यवहारिक हानि, 5. भावात्मक हानि और 6. आध्यात्मिक हानि।
किसी भी शुभ कार्य में प्रवृत्ति और अशुभ कार्य से निवृत्ति के लिए उससे होने वाली लाभ-हानियों का ज्ञान साधक के उत्साह को बनाए रखता है। इस दृष्टि से यह अध्याय बहुत महत्त्वपूर्ण है।
चतुर्थ अध्याय में ब्रह्मचर्य के सुरक्षा-उपायों का वर्णन है। चूंकि ब्रह्मचर्य साधना का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील आयाम है, इसलिए इसकी सुरक्षा की व्यवस्था भी व्यापक है। अन्त में सुरक्षा