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होता है। 112
दसवैकालिक सूत्र की अगस्त्यसिंह चूर्णि में अशरण अनुप्रेक्षा का उद्देश्य धर्म निष्ठा का विकास बताया गया है। 113
उत्तराध्ययन सूत्र में भी काम भोगों को शरण नहीं माना है। केवल एक धर्म ही शरण है। 1114 सूत्रकार कहते हैं कि जिस प्रकार सिंह हिरण को पकड़ कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को पकड़ कर ले जाती है। उस समय उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं होते - अपने जीवन का भाग देकर उसे बचा नहीं पाते हैं। 19 3.10.3. भव (संसार) भावना - आचारांग सूत्र में संयत व्यक्ति को लोकदर्शी कहा गया है। वह लोक के ऊर्ध्व, अधो एवं तिरछे तीनों भाग को जानता है। उत्तराध्ययन सूत्र में संसार को दुःख का आधार कहा गया है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। 17 3.10.4. एकत्व भावना - पदार्थ और व्यक्ति के प्रति आसक्ति के कारण अनेकत्व उत्पन्न होता है। इस आसक्ति को नियंत्रित करने के लिए अनेकत्व की प्रतिपक्षी भावना- 'एकत्व भावना' का प्रयोग अत्यन्त उपादेय होता है।
आचारांग सूत्र में ब्रह्मचर्य विकास के लिए सब प्रकार के संग का परित्याग कर एकत्व भावना के अभ्यास का निर्देश है। सूत्रकार कहते हैं - 'अइअच्च सव्वतो संगंण महं ओत्यिति हति एगोहमंति। 18 अर्थात् 'मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूँ।' इस वास्तविक सत्य की अनुप्रेक्षा करने से पर-पदार्थों पर राग भाव क्षीण होते हैं। 3.10.5 अन्यत्व भावा - ब्रह्मचर्य साधना के मार्ग में साधक के कदम डगमगाने का प्रमुख कारण होता है- ममकार अर्थात् मेरापन। चेतना जब ममत्व के अंधकार में दिङ्मूढ हो जाती है तब 'अन्यत्व भावना' उसके लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करती है।
आचारांग सूत्र के अनुसार दुःख और सुख सबका अपना-अपना होता है। कोई भी दूसरे के सुख-दुःख को बांट नहीं सकता है। 119
दसवैकालिक सूत्र में संयम से भटके हुए मन का समाधान अन्यत्व भावना दिया गया है। सूत्रकार के शब्दों में -
समाए पेहाए परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा। न सा महं नो वि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज रागं ।। 120
अर्थात् समदृष्टि पूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् मन बाहर निकल जाए तो यह विचार करें कि वह मेरा नहीं है और न ही मैं उसका हूँ। मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषय-राग को दूर करे। भेद विज्ञान का यह चिन्तन मोह त्याग का बहुत बड़ा साधन माना गया है।
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