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ब्रह्मचर्य उतना ही सुकर होगा। शरीर का हल्कापन उदर अर्थात् आमाशय, पक्वाशय और मलाशय के हल्केपन पर निर्भर करता है। उदर के हल्केपन के लिए ऊनोदरी अर्थात् परिमित भोजन आवश्यक है।
अतिमात्रा में भोजन आदि का निषेध 'ब्रह्मचर्य समाधि स्थान' में विस्तृत रूप से मिलता है जिनका वर्णन 'ब्रह्मचर्य-सुरक्षा के उपाय' शीर्षक अध्याय के अन्तर्गत किया गया है।
आचार्य तुलसी ने मनोनुशासनम् में ऊनोदरी को इस प्रकार परिभाषित किया हैअल्पाहार ऊनोदरिका अर्थात् कम खाना, परिमित खाना, आंतों पर किंचित भी भार न डालना।
प्रत्येक व्यक्ति की भोजन की आवश्यकता भिन्न-भिन्न हो सकती है। ऐसी स्थिति में आहार की निश्चित मात्रा क्या हो? इसका समाधान मनोनुशासनम् के व्याख्याकार आचार्य महाप्रज्ञ ने इस प्रकार दिया है- भोजन के एक घण्टा बाद पानी पीने और वायु बनने पर पेट हल्का रहे, कोई भार प्रतीत न हो तो समझा जा सकता है कि भोजन परिमित हआ है। 49 3.3. रस परित्याग
दूध, दही, घृत आदि तथा प्रणीत पान-भोजन और रसों के वर्जन को रस परित्याग तप कहा जाता है। 50
___ आवश्यक चूर्णि में रस (विकृति) के नौ प्रकार इस प्रकार बताए हैं - क्षीर (दूध), दही, नवनीत, घृत, तेल, गुड़, मधु, मद्य और मांस। वहाँ अवगाहिम - घी या तेल में तले हुए पदार्थ को दसवीं विकृति के रूप में माना गया है।
दूध, घी आदि रसों के अतिमात्रा में सेवन से वीर्य का अति निर्माण होता है। इससे कामोत्तेजना अधिक बढ़ती है। इसलिए ब्रह्मचर्य के विकास के लिए रस-परित्याग तप बहुत जरूरी है। ऊनोदरी की तरह रस परित्याग का भी ब्रह्मचर्य समाधि स्थान में वर्णन किया गया है। 3.4. भिक्षाचरी
ब्रह्मचर्य विकास में भिक्षाचरी का महत्त्व और शोध का विषय है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य को दृढ़ करने के लिए नियम-द्रव्यादि संबंधी अभिग्रह करना भी एक उपाय बताया गया है। 3.5. कायक्लेश
ठाणं सूत्र के टिप्पण में आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं - "कायक्लेश बाह्य तप का पांचवां प्रकार है। इसका अर्थ जिस किसी प्रकार से शरीर को कष्ट देना नहीं है, किन्तु आसन एवं देहमूर्छा विसर्जन की कुछ प्रक्रियाओं से शरीर को जो कष्ट होता है, उसका नाम कायक्लेश है।"
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