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बात कही गई है ।" स्थानांग एवं समवायांग की ब्रह्मचर्य गुप्ति स्थान में तो इसका कोई वर्णन नहीं मिलता है परन्तु समयावांग में क्षुल्लक और व्यक्त श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रज्ञप्त अठारह स्थानों में स्नान वर्जन और विभूषा वर्जन को स्थान दिया गया है।' प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य के विघातक तत्त्वों की विस्तृत श्रृंखला का उल्लेख है जिसमें अनेक तत्त्व विभूषा से संबंधित हैं, जैसे - घृतादि की मालिश, तेल लगाकर स्नान, बार-बार बगल, सिर, हाथ, पैर और मुंह धोना, मर्दन करना, विलेपन करना, चूर्णवास - सुगन्धित चूर्ण - पाउडर से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि का धूप देना, शरीर को मण्डित करना, सुशोभित बनाना, नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना आदि। यहाँ स्वयं के शरीर के शृंगार का निषेध तो है ही शृंगार के केन्द्र माने जाने वाले नाटक, गीत, वाद्ययंत्र, नटों, नृत्यकारों और जल्लो- रस्से पर खेल दिखलाने वालों और मल्लकुश्तीबाजों का तमाशा आदि देखने का भी निषेध है। 184 इसी ग्रंथ में स्नान एवं दंत धोवन का भी निषेध है।
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दसवैकालिक के सूत्रकार मैथुन से निवृत्त ब्रह्मचारी का विभूषा से कोई प्रयोजन नहीं मानते हुए विभूषा का निषेध करते हैं। इस सूत्र में विभूषा के परिणाम को बताते हुए कहा गया है कि इससे चिकने (निकाचित) कर्म का बंधन होता है जिससे व्यक्ति दुरुत्तर संसार-सागर में गिरता रहता है। यहाँ विभूषा को इतना घातक माना गया है कि इसे तालपुट विष से उपमित किया गया है। तीर्थंकरों का संदर्भ देते हुए सूत्रकार कहते हैं विभूषा करने की मानसिक प्रवृत्ति भी विभूषा के समान प्रचुर पापयुक्त है।'
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उत्तराध्ययन सूत्र में भी ब्रह्मचर्य समाधि स्थान के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य में रत रहने वाले के लिए विभूषा वर्जन का निर्देश है। इसका कारण स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं- जिसका स्वभाव विभूषा करने का होता है, जो शरीर को विभूषित किए रहता है, उसे स्त्रियां चाहने लगती हैं, इससे ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है। यहाँ शरीर की शोभा बढाने वाले केश, दाढी आदि का निषेध करते हुए सम्पूर्ण देहाध्यास से मुक्त रहने का निर्देश है। '
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आवश्यक सूत्र की वृत्ति, मूलाचार, अणगार धर्मामृत आदि ग्रंथ में भी विभूषा को ब्रह्मचर्य की विराधना के कारणों में एक मानते हुए ब्रह्मचारी को इसका वर्जन करने को कहा गया है। '
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निशीथ सूत्र में एक बार या बार-बार विभूषा (काय परिकर्म) करने या उसका अनुमोदन करने वाले के लिए लघुमासिक प्रायश्चित्त बताया है। ( निशीथ 15/99-124, 3/16-69)। यदि यह विभूषा अब्रह्म सेवन के संकल्प से की गई है तो इसका प्रायश्चित्त गुरु चौमासिक आता है।
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