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________________ 133 उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए प्रणीत आहार का निषेध किया गया है।' किन्तु यहाँ स्वाद के लिए न खाकर केवल जीवन निर्वाह के लिए खाने का निर्देश है।" यहाँ रस सेवन का आत्यन्तिक निषेध नहीं है किन्तु अति मात्रा में उसका सेवन करने का निषेध है। 135 दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की व्याख्या में कहा है कि जिस प्रकार सांप बांबी में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार एक श्रमण जरा भी आस्वाद लिए बिना भोजन के कौर-ग्रास नीचे उतारे। ' 136 137 धर्मामृत अनगार में रसनेन्द्रिय को जीतना शेष सभी इन्द्रियों को जीतने से कठिन बताया है किन्तु ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए इसे जीतना परमावश्यक बताया गया है। अकलंक देव ने तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है कि जो स्पर्श जन्य सुख का त्याग कर देते हैं, वे भी रसना को वश में नहीं रख सकते हैं। 138 - महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए अस्वाद व्रत पर बहुत बल दिया। उन्होंने कहा • ब्रह्मचर्य का अस्वाद व्रत से घनिष्ठ संबंध है। जो अपनी जिव्हा को कब्जे में रख सकता है, जिसने जीभ को नहीं जीता, वह विषय वासना को नहीं उसके लिए ब्रह्मचर्य सुगम हो जाता है जीत सकता है। 139 दिए हैं आचार्य महाप्रज्ञ ने संबोधि में स्वाद विजय की साधना को सफल बनाने के तीन सूत्र - पदार्थ में रस से विरक्ति के लिए आत्मा में रस की अनुभूति करना जिसे यह हो गई, वही पुरुष रस (स्वाद) को जीत सकता है आत्मा में रस लेने के दो उपाय है (अ) भोजन करने के लक्ष्य का स्पष्ट अनुचिन्तन करना (ब) समता का अभ्यास ।' ब्रह्मचारी को भोजन करते समय स्वाद लेने के लिए दाएं जबड़े से बाईं ओर तथा बाएं जबड़े से दाई ओर भोजन का संचार नहीं करना चाहिए। 140 3. स्वाद के लिए खाद्य पदार्थों में विविध प्रकार के संयोग न मिलाना चाहिए।' अतिमात्रा में आहार निषेध ब्रह्मचर्य साधना का आहार की मात्रा के साथ गहरा संबंध है। स्वास्थ्य शास्त्रियों के अनुसार शरीर की भोजन पचाने की एक क्षमता होती है। इसलिए भोजन की एक निश्चित मात्रा होती है। मात्रा से अधिक किया गया आहार पचता नहीं, बल्कि पेट में सड़ता रहता है। इतना ही नहीं, यह सड़ा हुआ आहार अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न करते हैं। आचारांग सूत्र में इसका समाधान ऊनोदरिका बताया गया है। 43 सूत्रकृतांग सूत्र में ब्रह्मचर्य साधक को अवश्य रूप से मात्रा वृत्तिक होना बताया गया है। इसका अर्थ है केवल उतना ही 138 2.7. 1. 2. 141 142
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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