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वह धमकी भरे शब्दों में कहने लगता है
यदि सम्भाव्यपापोऽहम पापेनापि किं मया।
निर्विषस्यादि सर्पस्य भृशमुद्विजते जनः।। यदि लोग मुझे पापी के रूप में देखते हैं तो भला मैं अपापी होकर भी क्या करूंगा। सर्प चाहे निर्विष ही क्यों न हो, लोग तो उससे भय खाते ही हैं। 153 सूत्रकृतांग सूत्र में माया की निष्पत्ति बताते हुए कहा गया है कि वह मायावी चाहकर भी अपने आपको छिपा नहीं सकता। व्यक्ति का आचरण स्वयं उसका स्वरूप प्रकट कर देता है, उसके लिए दूसरे की साक्षी आवश्यक नहीं होती है। इसके समर्थन में व्याख्याकार ने एक सुंदर श्लोक प्रस्तुत किया है -
न य लोणं लोणिजइ, ण य तुप्पिजइ धयं व तेल्लं वा।
किह सक्को वंचेउं, अत्ता अणुहूय कल्लाणो।। अर्थात् नमक को नमकीन नहीं बनाया जा सकता। घी और तेल को स्निग्ध नहीं किया जा सकता है। जिस आत्मा ने अपने कल्याण का अनुभव कर लिया है उसे कैसे ठगा जा सकता
उत्तराध्ययन सूत्र में भी इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि विषयासक्त व्यक्ति विषय की उपलब्धि के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकता है। कामासक्ति एक ऐसा पाप है जो अन्य सभी पापों को जन्म देती है। उन्हीं में से एक पाप प्रमुख है माया मृषा। 155 2.5(5) अतृप्ति - आचारांग सूत्र के अनुसार मनुष्य दु:ख मुक्ति के लिए काम का आसेवन करता है। किंतु मूढ़ता के कारण वह नहीं समझ पाता कि इससे दु:ख और उसके हेतुभूत कामदोनों का पोषण होता है। 156 आचारांग के चूर्णिकार ने एक श्लोक में कहा है -
नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः।
नान्तकृत सर्व भूतानां, न पुंसां वामलोचना।। जैसे अग्नि ईंधन से, महासमुद्र नदियों से और यमराज सभी प्राणियों को मारकर भी तृप्त नहीं होता, वैसे ही स्त्री पुरुषों से तृप्त नहीं होतीं। 15 मनोवैज्ञानिक भी इस बात की पुष्टि करते हैं।
इसी सूत्र में भोगों को अतृप्तिकर बताते हुए यह उदाहरण प्रस्तुत किया गया है कि यदि ये भोग जीवन का समाधान देते तो भरत आदि चक्रवर्ती राजा भी संयमी क्यों बनते। 153 सूत्रकृतांग सूत्र में भी काम भोग के सेवन करने से अतृप्ति की वृद्धि होना माना गया है। 159
उत्तराध्ययन सूत्र में भी इसी का समर्थन करते हुए कहा गया है कि विषयासक्ति के कारण मनुष्य उनका उत्पादन, रक्षण और व्यापार करता है। उनके भोग से पूर्व, पश्चात् और भोग काल के समय में ये अतृप्ति की ही वृद्धि करते हैं। १००
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