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________________ मातृवंश, पितृवंश, साथ में रहने वाले मित्रादि, धर्म और बंधु बांधवों की भी परवाह नहीं करता धर्मामृत अनगार में इसके कई पौराणिक उदाहरण भी दिए गए हैं। सूत्रकार कहते हैं कि कामी पुरुष ऐसा कोई काम नहीं है जिसे नहीं करता। पुराणों में कहा गया है कि काम से पीडित ब्रह्मा ने अपनी कन्या में, विष्णु ने गोपिकाओं में, महादेव ने शन्तनु की पत्नी में, इन्द्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या में और चंद्रमा ने अपने गुरु की पत्नी में मन विकृत किया। 42 इस प्रकार कामांधता से व्यक्ति पारिवारिक, सामाजिक संबंधों की उपेक्षा कर देता है। 2.4(9) सद्गुणों का नाश - ज्ञानार्णव के अनुसार काम से मुग्ध हुआ प्राणी चतुर होकर भी मूर्ख हो जाता है, क्षमाशील होकर भी दुष्ट बन जाता है। शूर होकर भी कायर जैसी चेष्टा करने लगता है, महान होकर भी हीनता का कार्य करता है, तीक्ष्ण होकर भी कुंठित हो जाता है तथा जितेंद्रिय होकर भी भ्रष्ट हो जाता है। 143 योगशास्त्र में कहा गया है कि विषय-विकारों के चिंतन मात्र से महापुरुषों के भी सद्गुणों का नाश हो जाता है। इसी प्रकार धर्मामृत अनगार कहता है कि जैसे आग तृणों के समूह को जलाकर भस्म कर देती है वैसे ही प्रज्ज्वलित काम विकार कुल, शील, तप, विद्या, विनय आदि गुणों के समूह को क्षण भर में नष्ट कर देता है। 145 2.4(10) जिम्मेदार पद के अयोग्य - व्यवहार सूत्र में अब्रह्मचर्य सेवी को पद देने के संदर्भ में विधि-निषेध की विस्तृत चर्चा की गई है। इसके अनुसार साधु गण से पृथक् न होता हुआ तथा गणावच्छेदक, आचार्य और उपाध्याय यदि पद पर रहता हुआ अब्रह्मचर्य का सेवन करे तो उस कारण से उसे जीवन भर के लिए आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना तथा धारण करना नहीं कल्पता है। यदि वह पद से हटकर अब्रह्मचर्य का सेवन करे तो तीन वर्ष पर्यन्त ये पद देना और धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने के बाद, चौथे वर्ष में प्रविष्ट हो जाने पर यदि वे ब्रह्मचर्य में स्थित, उपशान्त-वासना विरहित, अब्रह्मचर्य से सर्वथा उपरत, प्रतिविरत एवं विकार शून्य हो जाए तो ही उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना व धारण करना कल्पता 2.4(11) अभ्याख्यान - काम वासना मनुष्य की व्यक्तिगत कमजोरी है। इसके आवेग में आकर वह स्वयं को बचाने के लिए दूसरों पर मिथ्या आरोप लगाने लग जाता है। भगवती आराधना में कहा गया है कि काम से उन्मत्त साधु, साधु रूप को त्याग कर अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सब साधुजनों का अवर्णवाद करता है, उन पर मिथ्या दोषारोपण करता 100
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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