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चारित्रको बढाता है। आपको उसीका आश्रय लेना चाहिए। गाथा में आगत पार्श्वस्थ शब्द जो चारित्रमें क्षुद्र हैं उन सबके उपलक्षणके लिए है।
___ संयमीजन मुझ चारित्रहीनका तिरस्कार करते हैं अत: मैं पार्श्वस्थ आदि चारित्रहीन मुनियोंके पास रहूँ। ऐसा मनमें विचार नहीं करना चाहिए। क्योंकि दुर्जनके द्वारा की गई पूजासे संयमीजनोंके द्वारा किया गया अपमान श्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि दुर्जनका संसर्ग शीलका नाशक है किन्तु संयमीजनों द्वारा किया गया अपमान शीलका नाशक नहीं है। (पृष्ठ २९८)
पांडित्य का दूषण ये सब बाते बहुत अच्छी हैं। परन्तु बदलती परिस्थिति को देखकर उनमें परिवर्तन करना चाहिये, ऐसा भी नहीं कहना चाहिये क्योंकि श्रमण धर्म सर्वाश एवं सार्वकालिक सत्य है। शाश्वत धर्म में यत्किंचित् भी बदलाव संभव नहीं है। धर्म में बदलाव आंशिक सत्यता का निदर्शक होता है। सच्चा धर्म कभी आंशिक सत्य नहीं होता है। मिथ्या प्रवृत्ति को दूर करके कल्याणकारी बातों का प्रचार करना ही सच्चा सुधार है। आज विषयलोलुपी लोग धर्ममार्ग को छोड़कर पतनकारी क्रियाओं में प्रवृत्ति को सुधार का कार्य कहते हैं। अन्याय पक्ष का पोषण पांडित्य का दूषण है, भूषण नहीं ।
सर्वज्ञ के द्वारा भाषित पदार्थों में संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप परिणाम का नाम मिथ्यात्व है । (मूलाचार पूर्वार्ध - पृष्ठ २००) इसलिए कहा है - जैन मुनि अपनी बात नहीं कहता । जो अपने मन की बात कहता है, वह जैन साधु नहीं हैं । जैन मुनि अपनी बात नहीं, जिनेन्द्र भगवान की बात कहता है । (आ. शान्तिसागर चरित्र - पृष्ठ ६८)
जो लोग स्वयं के लिखे (और कहे) हुए को तो सत्य मानते हैं और पूर्वाचार्यों की बातों को गलत ठहराते हैं ऐसे लोग निःसंदेह जैन संस्कृति का ह्रास करने वाले हैं । (प्रज्ञा प्रवाह - पृष्ठ ५)
क्या जमाना खराब है? एक दिन महाराज के सामने यह चर्चा चली कि आज का जमाना
खराब है. शिथिलाचार का युग है। पुराना रंग ढंग बदल गया, अत: महाराज को भी अपना उपदेश नये ढंग का देना चाहिए ।
महाराज बोले - "कौन कहता है जमाना खराब है। तुम्हारी बुद्धि खराब है, जो तुम जमाने को खराब कहते हो । जमाना तो बराबर है। सूर्य पूर्व में उदित होता था, पश्चिम में अस्त होता था, वही बात आज भी है। अग्नि उष्ण थी, जो आज भी उष्ण है। जल शीतल था, सो आज भी शीतल है। पुत्र की उत्पत्ति स्त्री से होती थी, आज भी वही बात है। गाय से बछड़ा पहले होता था, यही नियम आज भी है । इन प्राकृतिक नियमों में कोई भी अन्तर नहीं पड़ा है, इससे अब जमाना बदल गया है, यह कहना ठीक नहीं है। जमाना बराबर है। बुद्धि में प्रहपना आ गया है। अत: उसे दूर करने को | स्वच्छ करने को, पापाचार के त्याग का उपदेश देना आवश्यक है।" (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ १२७) "समीचीन धर्म - सत्य की परम्परा अनादि-अनन्त होती है। उसे देश-काल की परिधि में बाँधा नहीं जा सकता ।" (देवनन्दि उवाच - पृष्ठ १९८) इस सत्य का सबके सामने प्रकाशन होना नितान्त आवश्यक
लोकरुचि नहीं लोककल्याण को देखकर उपदेश
परन्तु जो केवल व्यवहार को ही जानता है और उसका ही उपदेश देता है, उसे शिष्यों को उपदेश देने का अधिकार सर्वथा नहीं माना गया है। (धर्म रत्नाकर-९/१८, पृष्ठ १६६)
आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि “जो वक्ता श्रोताओं की इच्छानुसार उपदेश देता है, वह कलिकाल के अंग सदृश है। (अर्थात् अतिशय स्वार्थी
और दुष्ट है।) मार्गदर्शक सन्मार्ग का दर्शन करने में प्रशंसा प्राप्ति के बदले कल्याण को विशेष रूप से विचारता है।" (चारित्र चक्रवर्ती पृष्ठ २१४२१५ से उद्धृत)
आ. शान्तिसागर महाराज आगम के सामने लोकाचार को कोई महत्त्व नहीं देते थे । (पृष्ठ ४८०) क्योंकि योगसार प्राभूत में कहा है -
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कड़वे सच .
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