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बचाता है तो समझना चाहिये कि वह उसका हितैषी नहीं अपितु हितशत्रु
संघ और शासन की मर्यादा का संवाहक हो सकता है । (अक्षय ज्योति - (जूलाई-सितंबर/२००४) पृष्ठ २७) इसलिए - आचार्य ऐसा कोई कार्य नहीं करते कि जिससे निर्ग्रन्थों में ग्रंथियाँ (दोष) उत्पन्न हो । (ज्योर्तिमय निर्ग्रन्थ - पृष्ठ ७४)
वास्तव में अपने शिष्य को परीषह-जय सिखाना, शिथिलाचार से दूर रहने की शिक्षा देना और आत्मानुशासित बनाना; यही आचार्य की सच्ची करुणा व सच्चा अनुग्रह है । (आत्मान्वेषी - पृष्ठ ९७)
परन्तु जिनके कंधोंपर निर्ग्रन्थ मनियों से आगमानसार चर्या करवाने की जिम्मेदारी है ऐसे कई आचार्य भी अपने शिष्यों के आगमविरुद्ध क्रियाओंपर अंकुश लगाने के बजाय शिष्यलोभ से बड़ा संघ बनाकर अथवा बहुत दीक्षाएँ देकर बड़ा आचार्य बनने के लालच से ऐसे उन्मार्गगामी शिष्यों को दंडित भी नहीं करते हैं। वे यह विचार नहीं करते हैं कि सच्चा गुरु वह होता है जो कि शिष्य के दोषों को दूर करके उसे उत्तमोत्तम गुणों से विभूषित करता है। परन्तु जब गुरु ही भक्तों की गलती पर चुप्पी साध लेगें, तब फिर श्रमण संस्कृति की रक्षा व भक्तों का कल्याण कैसे हो पाएगा ? (दिव्य उपदेश भाग-६ - पृष्ठ १६) जो आचार्य अपने शिष्य के दोषों को देख करके कहता नहीं वह आचार्य उस शिष्य का शत्रु है । (स्याद्वाद केसरी - पृष्ठ २४३)
इसलिए ज्ञानार्णव में कहा है - धर्मध्वंसे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे ।
अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ||९/१५।। अर्थात् - जहाँ धर्म का नाश हो, क्रिया बिगड़ती हो तथा समीचीन सिद्धान्त का लोप हो उस जगह समीचीन क्रिया और सिद्धान्त के प्रकाशनार्थ बिना पूछे भी विद्वानोंको बोलना चाहिए क्योंकि यह सत्पुरुषोंका कार्य है। (पृष्ठ
भगवती आराधना में कहा भी है - जिब्भाए वि लिहंतो ण भदओ जत्थ सारणा णस्थि ।
पाएण वि ताडितो स भद्दओ जत्थ सारणा अस्थि ।।४८३।। अर्थात् - जो गुरु शिष्यके दोषों का निवारण नहीं करता, वह जिह्वासे मधुर बोलने पर भी भद्र नहीं है। और जो गुरु दोषोंका निवारण करता हआ पैरसे मारता भी है वह भद्र (हितकारी) है। (पृष्ठ ३६८-३६९)
गुणभरिदं जदि णावं दळूण भवोदधिम्मि भिजंतं ।
कुणमाणो ह उवेक्खं को अण्णो हज णिद्धम्मो ||१४९०।। अर्थात् - गुणोंसे भरी (मुनि रूपी) नावको संसार-समुद्र में डूबते हुए देखकर यदि कोई उसकी उपेक्षा करता है (उसे बचाने का प्रयत्न नहीं करता है) तो उससे बड़ा अधार्मिक दूसरा कौन होगा? (पृष्ठ ६९५)
संगति लोगिग सद्धारहिओ चरणविणो तहेव अववादी ।
विवरीओ खलु तच्चे वज्जेव्वा ते समायारे ।।३३८।। अर्थात - जो श्रमण लौकिक है, श्रद्धारहित है, चारित्रविहीन है, अपवादशील हैं, वह तत्त्व में (साधुत्वसे) विपरीत है, अतः उसके साथ सामाचारी (संसर्ग) नहीं करना चाहिए । अतः मोक्षार्थी श्रमणको अपनेसे गणाधिक या समान गुण (आचार) वाले श्रमणके साथ ही साधु को संसर्ग रखना चाहिए। (नयचक्को - पृष्ठ १७०-१७१)
अत: जैसा कि भगवती आराधना में कहा है - वासत्थसदसहस्सादो वि सुसीलो वरं खु एक्को वि । जं संसिदस्स सीलं दसणणाणचरणाणि वड्दति ।।३५६।।
संजदजणावमाणं पि वरं खु दुजणकदादु पूजादो । सीलविणासं दुजण-संसग्गी कुणदि ण दु इदरं ।।३५७।। अर्थात् - पार्श्वस्थ अर्थात् चारित्रमें शुद्र पति लाख भी हों तो उनसे एक भी सशील यति श्रेष्ठ है जो अपने संगीके शील, दर्शन, ज्ञान और
इस कार्य में उसे कुछ कठोर व्यवहार भी करना पड़े, जो उस समय शिष्य को प्रतिकूल भी दिखता हो तो भी इससे शिष्य नाराज होगा अथवा संघ छोड़कर जायेगा ऐसी चिन्ता करके शिष्य को चरित्रहीन होने से नहीं
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