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________________ अहो! केवल आहारदानको देनेवाला मानव जो फल प्राप्त करता हैं, वह कोटि सुवर्णके दानसे भी नियमत: कदाचित् भी प्राप्त नहीं होता है। (अमितगति श्रावकाचार-११/२३) अत: भाग्यशाली श्रावक लोग आहार देने के सौभाग्य के लिए बड़ा श्रम करते हैं । आहारदान का सौभाग्य उनके लिए रत्नराशि से बढ़कर है। आ. विद्यासागर तोता क्यों रोता? इस कविता में कहते हैं हे आर्य ! दान देना दाता का कार्य है प्रतिदिन अनिवार्य है। यथाशक्ति, तथाभक्ति ! मान-सन्मान के साथ पाप को पुण्य में ढालना है न ! (कविता संग्रह - तोता क्यों रोता ?) रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसका कारण कहा है - गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमार्टि खलु गृहविमुक्तानाम् । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ।।११४।। अर्थात् - निश्चय से जिस प्रकार जल रक्त को धो देता है उसी प्रकार गहरहित-निर्ग्रन्थ मुनियों के लिए दिया हआ आहार आदि दान गृहस्थी संबंधी कार्यों से उपार्जित पापकर्मों को भी नष्ट करता है । दानसंबंधित ऐसे उपदेशों के द्वारा आचार्यश्री (आदिसागर अंकलीकर) गृहस्थों को नित्य कर्म के प्रति प्रेरित करते थे (अक्षय ज्योति (जूलाई-सितंबर/२००४) - पृष्ठ २४) दान में सावधानी पापों को नाश करने वाली इस पवित्र आहारदान विधि में वर्तमान में कुछ कुप्रथाओं से मलिनता उत्पन्न हुई है । अनेक स्थानों में मन्दिर/क्षेत्र - कड़वे सच ..................-१०९ - के धन से, आहारदान फंड वा चन्दा इकठ्ठा करके अथवा सामूहिक चौका लगाया जा रहा है । यह पद्धति आगमानुकूल नहीं है । तत्वार्थसूत्र के अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसों दानम् 10/२८। इस सूत्र की टीका करते हए आ. विद्यानन्दि कहते हैं - दसरे के धन (द्रव्य) को देना तो दान नहीं है क्योंकि आ. उमास्वामी ने दान के लक्षण में अपने धन (द्रव्य) का परित्याग करना ऐसा निरूपण किया है । (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार-७/३८/१, पुस्तक ६-पृष्ठ ६५०) इस कथन के अनुरूप ही गणिनी आर्यिका ज्ञानमती के जीवन का एक संकल्प प्रारंभ से रहा है कि 'आहार में कभी संस्था के दान का एक पैसा भी नहीं लगना चाहिए और न ही साधु को अपने आहार के लिए श्रावकों से कहना चाहिए । (चारित्र चन्द्रिका - पृष्ठ ४१) यशस्तिलक चम्यू में भी कहा है - मुनिको ऐसा भोजन नहीं देना चाहिए... जो भेंटसे आया हो । (अर्थात किसी और व्यक्ति ने मनियों को देने के लिए दिया हो ।) (उत्तरखण्ड - ७४९, पृष्ठ २६४) जि. स. १/१४७ ? इसलिए आहारदान मन्दिर, पंचायत वा मुनिसंघ सेवा समिति आदि के द्रव्य से अथवा आहारदान फंड वा चन्दा एकत्रित करके अथवा दो-चार लोग मिलकर सामूहिक चौका लगाकर नहीं अपितु अपने वैयक्तिक द्रव्य से ही करना चाहिए । वह आहारदान भी नौकरों के अथवा किसी अन्य के द्वारा नहीं कराकर परिवारजनों के साथ स्वयं अपने हाथों से ही करना चाहिए । आलस, प्रमाद अथवा व्यस्तता के कारण स्वत: दान नहीं करके दूसरे से करवाना यह परव्यपदेश नामक अतिचार है। परव्यपदेश का अर्थ है - अपनी वस्तु दूसरे से दान में दिलवाना अथवा दुसरे दातार की वस्तु स्वयं दान में देना । (तीर्थंकर बनने का मन्त्र - पृष्ठ ३५) वर्तमानकालमें श्रावकजन फल आदि वस्तु या रुपया दूसरे भावकों को दे देते हैं। इस अभिप्राय से कि वे वह वस्तु या उस धनसे द्रव्य खरीद कर मुनियों को आहारदानमें दे दें। यह ... कड़वे सच .......................-११० -
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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