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हो, उनमें दान करने की भावना उत्पन्न होना उससे भी कठिन है । दान करने की इच्छा हो और सत्पात्र का समागम हो जाये यह संयोग तो महादुर्लभ है । जिन जीवों को ऐसे सुअवसर प्राप्त होते हैं फिर भी वे दान में प्रवृत्ति न करें तो उनका धन व्यर्थ ही है । (सजनचित्तवल्लभ - पृष्ठ ३८)
इसलिए भावसंग्रह में कहा है -
जह जह वडइ लच्छी तह तह दाणाई देह पत्तेसु ।
अहवा हीयइ जह जह देह विसेसेण तह तह य ।।५६८।। अर्थात् - जैसे जैसे धन की वृद्धि हो, वैसे वैसे सत्पात्रों के लिए दिये जानेवाले दान में भी वृद्धि करते जाना चाहिए अथवा जैसे जैसे धन की हानि हो वैसे वैसे विशेष दान देना चाहिए।
जेहिं ण दिण्णं दाणं ण चावि पुजा किया जिणिदस्स ।
ते हीणदीणदग्ग य भिक्खं ण लहंति जायंता ।। ५६९ ।। अर्थ : जिन्होंने सत्पात्रों को दान नहीं दिया, जिनदेव की पूजा नहीं की, वे अगले जन्म में हीन, दीन, दरिद्री होते हैं । उनकी इतनी दुर्दशा होती है कि माँगने पर भी उनको भीख तक नहीं मिलती।
कुलीन मनुष्य अपने घर पर आये हुए शत्रु को भी आसन, मधुर वचन और शक्ति के अनुसार भोजन-पान देकर उसका सत्कार करते हैं। तब ऐसा कौन मूढबुद्धि होगा जो भोजन के समय पर अपने द्वार पर आये हए मुनि का पड़गाहन नहीं करेगा ? इसलिए करल काव्य में कहा है - जब पुण्ययोग से घर के द्वार पर अतिथि हो, तब चाहे अमृत ही क्यों न हो, फिर भी उसे अकेले नहीं पीना चाहिये अर्थात् उसे पहले अतिथि को देकर ही फिर स्वयं सेवन करना चाहिये । (९/२)
इससे विपरीत जो श्रावक मुनीश्वरों को भक्तिपूर्वक आहारदान नहीं देंगे, जिनेन्द्रपूजा नहीं करेंगे, पंचपरमेष्ठियों को वंदन नहीं करेंगे, उनको मोक्षपद की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? अर्थात् उनको मोक्ष मिल ही नहीं सकता । (जिनेंद्र पूजेचे स्वरूप - पृष्ठ ३४-३५ (हिंदी अनुवाद))
घर या श्मशान ? मुनिराजों को आहार देना तो समाज का अहोभाग्य है, कर्तव्य है। कड़वे सच ..................... २०७-.
(सर्वज्ञप्रणीत जैन भूगोल – पृष्ठ १६६) इसलिए - सम्यग्दृष्टि हो, जैन हो और उसे साधु को आहार देने का परिणाम न आये । यह असम्भव ! असम्भव ! असम्भव ! आकाश के तारे नीचे आ सकते हैं, नरक उपर जा सकते हैं, स्वर्ग नीचे आ सकते हैं लेकिन कभी सम्यग्दृष्टि जैन के अन्दर यह परिणाम नहीं आ सकता कि मैं साधु को आहार नहूँ और जिसके अन्दर ऐसा परिणाम आये तो पक्का समझ लेना कि वह जैन है ही नहीं, केवल नाम मात्र का जैन हैया वह बनिया (बहरूपिया)है। (नग्नत्व क्यों और कैसे - पृष्ठ ६)
अत: संचमी मुनि को देखकर जिसके हदय में हर्ष उत्पन्न न हो, उन्हें आहारदान देने की इच्छा उत्पन्न न हो, वह मिथ्यादृष्टि ही है यह निश्चय करना चाहिए ।
पद्मपुराण में कहा है - जो दुर्बुद्धि मनुष्य आहार के समय आये हुए अतिथि का अपने सामर्थ्य के अनुसार सन्मान नहीं करता है - उसे आहार नहीं देता है उसके धर्म नहीं है। (पद्मपुराण२५/११२, भाग २ - पृष्ठ १४०)
इसलिए कानजी स्वामी कहते थे - जिस घर में प्रतिदिन भक्तिपूर्वक देव-शास्त्र-गुरु के दर्शन-पूजन होते हैं, मुनिवरों आदि धर्मात्माओं को आवरपूर्वक दान दिया जाता है, वह घर धन्य है और उसके बिना घर तो श्मशान-तुल्य हैं। (श्रावकधर्मप्रकाश - पृष्ठ १०१)
इसलिए यदि अपने यहाँ शद्ध घी, बूरा व दूध आदि पदार्थ न हो, और संयमी व्रती का लाभ हो जावे तो निःसंकोच भावसे इनके बिना रुखा-सुखा (ही सही) परन्तु ऐसा शद्ध भोजन जो सहज साध्य हो, वह व्रती जनों को देकर उनके दर्शन, ज्ञान व चारित्र की वृद्धि में सहाय्यक होना चाहिए । इन पदार्थों की उपलब्धि न हो तो भी भूलकर भी पात्रदान के लाभ से वंचित नहीं रहना चाहिए। (सामान्य जैनाचार विचार - पृष्ठ ११७) बल्कि यह विचार करे कि मैं तो गृहस्थ हैं। मुझे नित्य उत्तम-मध्यम-जघन्य पात्रों को दान देने का अवसर मिलता रहे, जिससे यह धन पाना भी सफल हो । (पृष्ठ १२८)
कड़वे सच
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