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ऐसा प्रतीत हो, मानो मूर्तिमान प्रशमगुण है। इसे ही कायशुद्धि कहते हैं । (पृष्ठ ४४८)
आत्मानुशासन में कहा है- येषां भूषणमंगसंगतरज : ... । । २५९ ।। अर्थात् - मुनियों के लिए शरीर पर लगी हुई धूलि भूषण होती है ।
भगवती आराधना में कहा है- मुनि स्नान तेलमर्दन, उबटन और नख, केश, दाढ़ी-मूछोंका संस्कार छोड़ देते हैं । दाँत, ओष्ठ, कान, मुख, नाक, भाँ आदिका संस्कार छोड़ देते हैं ।। ९२ ।। (पृष्ठ १२६ ) इसका कारण यह है कि पानी से शरीर स्वच्छ नहीं करके घी-तेल आदि पदार्थों के प्रयोग से भी शरीर पर लगा मल दूर करना भी अस्नान मूलगुण का भंग ही है क्योंकि मुनि को पहचानने के जो चार बाहरी लक्षण है उनमें एक लक्षण शरीरसंस्कारहीनता है । इसी लिए मरण कण्डिका में कहा है -
शरीरमें तेल की मालिश करना अभ्यंग स्नान है। पापवर्धक ऐसे कोई संस्कार साधु नहीं करता। (पृष्ठ ३८)
जिस साधक के अन्दर वैराग्य के अंकुर फूटने लगते हैं वही जान सकता है कि शरीर को कितना भी धोया, घिसा तो भी इसकी पवित्रता नहीं हो सकती है। फिर क्यों इससे प्रेम करना ? (प्रज्ञा प्रवाह पृष्ठ १८२)
कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है- जो मुनि शरीर के पोषणमें ही लगा रहता है- तरह-तरहके स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजनोंका भक्षण करता है, उपकरणोंमें विशेष रूपसे आसक्त रहता है तथा प्रतिष्ठा, विधान, मानसन्मान आदि बाह्य व्यवहारोंमें ही रत रहता है उसके कायोत्सर्ग तप कैसे हो सकता है ? (४६९, पृष्ठ ३५५ )
मूलाचार (टीका) में कहा है- चारित्र के कारणों का अनुमनन करना वैयावृत्त्य है । (पूर्वार्ध पृष्ठ ४७) अथवा आहारदानादि चार प्रकार का दान करना वैयावृत्ति है । (रत्नकरण्ड श्रावकाचार - १११-११७)
परन्तु अनेक अज्ञानी लोक साधुओं को ज्वर आदि कोई व्याधि अथवा विशेष श्रम आदि नहीं होने पर भी घी तेल आदि से अनावश्यक मालिश करने को ही वैयावृत्ति समझते हैं। वास्तविक देखा जाये तो वह वैयावृत्ति नहीं अपितु अस्नान मूलगुण का भंग करना है। वैयावृत्ति तो कड़वे सच ७१
नित्य आहारदान करने से होती है।
प्रश्न समाधान -
आहार आदि समय मुनि शरीर के कौनसे अंग धोते हैं ? • आहार के लिये गमन करने से पूर्व मुनि घुटनों तक पैर, कुहनी तक हाथ, मस्तक तथा मुख इतने ही अंगों की शुद्धि करते हैं। शेष अंगों को धोने से अस्नान मूलगुण का भंग होता है। केशलोच और उपवास
प्रश्न क्या केशलोच के दिन उपवास करना अनिवार्य है ? समाधान आचारसार में कहा है
कूर्चश्मश्रुकचोलुञ्चो लुचनं । ।१ / ४२ ।। (पृष्ठ १७) अर्थात् - दाढ़ी-मूंछ और मस्तक के केशों को उपाटना केशलोच है । केशलोच अपने अथवा दूसरों के हाथ से किया जाता है । (मूलाचार उत्तरार्ध - पृष्ठ ११८) उसमें मस्तक और दाढ़ी-मूंछ के यथासंभव सभी केश हाथों से ही उपाटते हैं। फ्रेंच कट आदि विशिष्ट स्टाईल के लिए भी कुछ केश छोड़े नहीं जाते अथवा अगले केशलोच से पहले किसी दिन निकाले नहीं जाते । मूलाचार गाथा २९ में 'उववासेणेव कायव्वो' कहा है जिससे केशलोच उपवास करके ही करना चाहिए ऐसा स्पष्ट अवधारण होता है । (पूर्वार्ध पृष्ठ ३६ )
एक दिन में भोजन की दो बेलाएँ होती है सुबह और दोपहर । किसी दिन आहार करने के बाद उस दिन के दोपहर की एक बेला, और दूसरे दिन की दोनों बेलाएँ ऐसी तीन बेलाओं को छोड़कर तीसरे दिन चौथी बेला में आहार ग्रहण करना उपवास अथवा चतुर्थभक्त कहा जाता है।
परन्तु २४ घंटे आहार नहीं करना ही उपवास है ऐसा मनमाना अर्थ करके सुबह आहार करके दोपहर केशलोच करना आगमविरुद्ध है । क्योंकि साधुओं का उपवास प्राय: १६ पहर अर्थात् ४८ घंटे का होता है जैसा कि धवला पुस्तक १३ में कहा है। उस (इच्छानिरोधरूप तप ) में चौथे, छठे, आठवें, दसवें, बारहवें एषण (अन्न, पान, खाद्य और स्वाद्य रूप चार प्रकार के आहार) का ग्रहण करना अनेषण-उपवास नामक तप है । (पृष्ठ ५५ )
कड़वे सच
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