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थी। उन्हें एक मात्र चिन्ता थी तो जिनवाणी के अनुसार प्रवृत्ति करने की । (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ ७८)
इस कठिन परिस्थिति में भी उन्होंने आगम-कथित मार्ग नहीं छोड़ा । परन्तु खेद है कि आज विषयलोलुपी और मतलबी लोग धर्ममार्ग को छोड़कर पतनकारी क्रियाओं में प्रवृत्ति को सुधार का कार्य कहते हैं ।
ऐसे समय श्रावकों का कर्तव्य है कि सर्वज्ञ, वीतराग तीर्थंकर द्वारा प्रकाशित पथपर प्रवृत्ति करें। कुछ क्षण पर्यन्त पूर्व पुण्योदय वश हीन प्रवृत्ति वालों की उन्नति भी दिखे, किन्तु उसे क्षणिक जानकर मार्ग से भ्रष्ट नहीं होना चाहिए । हीन प्रवृत्ति सदा हीन ही रहेगी। इसलिए आ. अमितगति प्रार्थना करते हैं -
स्वतो मनोवचनशरीरनिर्मितं समाशयाः कटुकरसादिकेषु ये । न भुञ्जते परमसुखैषिणोशनं मुनीश्वराः मम गुरवो भवन्तु ते ॥ (सुभाषित रत्नसंदोह - २७/१२)
अर्थ : उत्कृष्ट सुख (मोक्षसुख) की अभिलाषा से कटुक व मधुर आदि रसोंमें समान अभिप्राय रखनेवाले ( राग-द्वेषसे रहित) जो मुनीन्द्र अपने मन, वचन, कायसे तैयार किये गये भोजन को ग्रहण नहीं करते हैं, वे एषणासमितिके धारी मुनीन्द्र मेरे गुरु होवे । (पृष्ठ १८५)
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शंखेन्दू सितपुष्पदन्तकलिकां यस्यास्ति दिव्यप्रभां देवेन्द्रैरपि पूजिताक्षय सुखी दोषैर्विमुक्तात्मकः । दिव्यानन्तचतुष्टयै: सुरमया स्वर्मोक्षसन्दायकः सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्री पुष्पदन्तो जिन: ।।
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६. प्रकीर्णक अस्नान और तेलमालिश प्रश्न मुनि स्नान क्यों नहीं करते ? समाधान - मूलाचार प्रदीप में कहा हैस्नानोद्वर्तन सेकादीन् मुखप्रक्षालनादिकान् संस्कारान् सकलान् त्यक्त्वा स्वेद जल्ल मलादिभिः ।। १२९९ ।। लिप्तांगं धार्यते यच्च स्वान्तः शुद्धयैर्विशुद्धये । तदस्नान व्रतं प्रोक्तं जिनैरन्तर्मलापहम् ।। १३०० ।। अर्थात् - मुनि अंत:करण की शुद्धि से आत्मा की शुद्धता प्राप्त करने के लिए स्नान, उबटन, जलसिंचन और मुख, हाथ, पाँव आदि धोना आदि समस्त शरीर संस्कारों का त्याग करते हैं तथा पसीना, धूलि आदि मलों से लिप्त हुए शरीर को धारण करते हैं उसको जिनेन्द्रदेव ने अस्नान व्रत कहा है। । (पृष्ठ २०८ - २०९ )
आचारसार में कहा है -
प्राणाघातविभीतितस्तनुरतित्यागाच्च भोगास्पृहः । स्नानोद्वर्त्तनलेपनादिविगमात्प्रस्वेदपांसूदितम् ||७ /६ ॥
अर्थात् स्नान करनेसे अनेक प्राणियोंका घात होता है इसी डरसे जो कभी स्नान नही करते, शरीरपर पसीना आनेपर जो धूलि जम जाती है उसको नहीं धोते, उसको लगी रहने देते हैं, इसी प्रकार वे मुनिराज अपने शरीरसे ममत्वका सर्वथा त्याग कर देते हैं। इसके सिवाय स्नान करना, उबटन लगाना, चंदनादिकका लेप करना आदि सब का त्याग कर देते हैं इसलिए भी वे अपने शरीरपर जमे हुए पसीना, धूलि आदिको नहीं हटाते हैं। (पृष्ठ १८२)
अनगार धर्मामृत में कहा है - शरीरपर न कोई वस्त्र हो न आभूषण, न उसका संस्कार-स्नान, तेल मर्दन आदि किया गया हो, जन्मके समय जैसी स्थिति होती है वही नग्न रूप हो, मल लगा हो, किसी कोई विकार न हो, सर्वत्र सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति हो, जिसे देखनेसे
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