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लोकसम्बन्धी संसारी कर्म-ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र-यंत्रादिक में प्रवर्ते, तो वह मुनि संयम-तप सहित होकर भी लौकिक कहा गया है। (प्रवचनसार – पृष्ठ ३२९)
इसलिए दंभ वचन के स्वभाववाला अर्थात् कुटिल परिणामी, पर की निन्दा करनेवाला, दूसरों के दोषों को प्रकट करने में तत्पर या चुगलखोर, मारण, उच्चाटन, वशीकरण, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, ठगशास्त्र, राजपुत्रशास्त्र, कोकशास्त्र, वात्स्यायनशास्त्र, पितरों के लिए पिण्ड देने के कथन करनेवाले शास्त्र, मांसादि के गुणविधायक वैद्यकशास्त्र, सावधशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र में रत हुए मुनि से जो भले ही चिरकाल से दीक्षित है किन्तु उपर्युक्त दोषों से युक्त है तथा आरम्भ करनेवाला है उससे, कभी भी संसर्ग न करे। (मूलाचार गाथा ९५९ की टीका, उत्तरार्ध - पृष्ठ १४२) ध्यान रहे - वीतराग निर्घन्ध गुरु को न मानकर परिग्रह, लौकिक कार्यों और चमत्कारों में रत को गुरु मानना गुरुमूढ़ता है ।
मुनियों की दुर्गति प्रश्न - किन मुनियोंकी दुर्गति होती है ? समाधान - भगवती आराधना (टीका) में कहा है -
जो भस्म, धूल, सरसों, पुष्प, फल, जल, आदिके द्वारा रक्षा या वशीकरण करता हैं वह भूतिकर्म कुशील है। कोई कोई प्रसेनिकाकुशील होता है जो अंगुष्ठप्रसेनिका, शशिप्रसेनिका, सूर्यप्रसेनिका, स्वप्नप्रसेनिका आदि विद्याओंके द्वारा लोगोंका मनोरंजन करता है। कोई अप्रसेनिका कुशील होता है जो विद्या, मंत्र और औषध प्रयोग के द्वारा असंयमी जनोंका इलाज करता है। कोई निमित्तकुशील होता है जो अष्टांग निमित्तोंको जानकर लोगोंको इष्ट-अनिष्ट बतलाता है। जो अपनी जाति अथवा कल बतलाकर भिक्षा आदि प्राप्त करता है वह आजीवक़शील है। जो किसीके द्वारा सताये जानेपर दूसरेकी शरणमें जाता है अथवा अनाथशालामें जाकर अपना इलाज कराता है वह भी आजीवकुशील होता है। जो विद्या प्रयोग आदिके द्वारा दूसरोंका द्रव्य हरने और दम्भप्रदर्शनमें तत्पर रहता है वह कक्वकुशील होता है। जो इन्द्रजाल (चमत्कार) आदिके द्वारा लोगों को
आश्चर्य उत्पन्न करता है वह कुहनकुशील है। जो वृक्ष, झाड़ी, पुष्प और फलोंको उत्पन्न करके बताता है तथा गर्भस्थापना आदि करता है वह सम्मूर्छनाकुशील है। जो सजातिके कीट आदिका, वृक्ष आदिका, पृष्प-फल आदिका तथा गर्भका विनाश करता है. उनकी हिंसा करता है, शाप देता है वह प्रपातनकुशील है। (पृष्ठ ८५५)
गाथामें आये आदि शब्दसे ग्रहण किये कुशीलोंको कहते हैं - जो क्षेत्र, सुवर्ण (धन), चौपाये (गाड़ी) आदि परिग्रहको स्वीकार करते हैं, हरे कंद, फल खाते हैं, कृत-कारित-अनुमोदनासे युक्त भोजन, उपधि, वसतिकाका सेवन करते हैं, स्त्रीकथामें लीन रहते हैं, मैथुन सेवन करते हैं, आस्रवके अधिकरणोंमें लगे रहते हैं वे सब कुशील हैं। जो धृष्ट, प्रमादी और विकारयुक्त वेष (हेअर स्टाईल अथवा विशिष्ट दाढ़ी मूंछ) धारण करता हैं वह कुशील है।
अब संसक्तका स्वरूप कहते हैं - चारित्रप्रेमियों में चारित्रप्रेमी, और चारित्रसे प्रेम न करनेवालोंमें चारित्रके अप्रेमी, इस तरह जो नटकी तरह अनेक रूप धारण करते हैं वे संसक्त मुनि हैं । जो पञ्चेन्द्रियों के विषयोंमें
आसक्त होते हैं, ऋद्धिगारव, सातगारव और रसगारवमें लीन होते हैं, स्त्रियोंके विषयमें रागरूप परिणाम रखते हैं, और गृहस्थजनोंके प्रेमी होते हैं वे संसक्त मुनि हैं। वे पार्श्वस्थके संसर्गसे पार्श्वस्थ, कुशीलके संसर्गसे कुशील और स्वच्छन्दके सम्पर्कसे स्वयं भी स्वच्छन्द होते हैं।
अब यथाच्छन्दका स्वरूप कहते हैं - जो बात आगममें नहीं कही है, उसे अपनी इच्छानुसार जो कहता है वह पथाच्छन्द है। जैसेवर्षामें जलधारण करना अर्थात् वृक्षके नीचे बैठकर ध्यान लगाना असंयम है। छरी. कैंची आदिसे केश काटनेकी प्रशंसा करना और कहना कि केशलोच करनेसे आत्माकी विराधना होती है। पृथ्वीपर सोनेसे तृणोंमें रहनेवाले जन्तुओंको बाधा होती है। उद्दिष्ट भोजनमें कोई दोष नहीं है क्योंकि भिक्षाके लिये पूरे ग्राममें भ्रमण करनेसे जीव निकायकी महती विराधना होती है । घरके पात्रों में भोजन करने में कोई दोष नहीं है ऐसा कहना । जो हाथमें भोजन करता हैं उसे परिशातन दोष लगता है ऐसा कहना । आजकल आगमानुसार आचरण
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