________________
४३) इसलिए जिस दान से पात्रता नष्ट होकर व्रत छूट जाए, रत्नत्रय में दोष लग जाए, ऐसा दान उत्तम विद्वानों को कण्ठगत प्राण होने पर भी नहीं देना चाहिए । (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार-२०/१५९)
अत: मुनि अमितसागर कहते हैं - "साधु के लिए ज्ञानोपकरण और संयमोपकरण के अलावा (नॅपकीन, मोबाईल) ऐसी कोई वस्तु नहीं देना चाहिये जिससे साधु एवं धर्म का अपलाप हो।" (मन्दिर - पृष्ठ ७८)
जो अज्ञानी उत्तम मुनियों के लिए (संयम का पात करने वाला धन, नॅपकीन, मोबाईल, कम्प्युटर, टीवी, टॉर्च, मोटर, कॅमेरा आदि) पापोत्पादक कुवान देता है वह सम्यक्वारिन का घात करने से उत्पन्न पाप से नरक में पड़ता है। कुदान मेवाला महापापी होता है और भवभव में दरिद्री होता है। (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार-२०/१६१-१६३)
इसलिए तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मतिसागर जी का समाज के लिए ऐसा आदेश है कि - इस कुदान को रोकने की आवश्यकता है । साधुओं को असीमित और अयोग्य वस्तु नहीं देनी चाहिये । (ज्योति से ज्योति जलती रहे - पृष्ठ १२९)
४. पत्थर की नाव
जिनधर्म के विराधक आ. कुन्दकुन्ददेव ने स्थणसार में कहा है -
आरंभे धण-धण्णे, उवयरणे कंखिया तहासूया । वय गुणसील विहीणा, कसाय कलहप्पिया मुहरा ।।१०१।। संघ-विरोह-कुसीला, सच्छंदा रहिय-गुरुकुला मूढा । रायादि सेवया ते, जिण-धम्म-विराहया-साहू ।।१०२।।
जो साधु आरंभ में धनधान्य में, अच्छे-अच्छे, सुंदर उपकरणों में आकांक्षा रखते हैं, गुणवानों या साधर्मियों में ईर्ष्या रखते हैं, व्रत-गणशील से रहित हैं अर्थात् व्रतों में अतिचार, अनाचार लगाते रहते हैं, तीव्रकषायी व कलहप्रिय स्वभावी हैं, व्यर्थ में बहुत बोलते हैं, बकवादी, वाचाल हैं, आचार्य संघ का, उनकी आज्ञा का विरोध करते हैं, कुशील हैं,
व्रतों से च्युत हैं, मात्र बाह्य में नग्न हैं, स्वेच्छाचारी हैं, गुरुकुल में-गुरु या आचार्य संघ में नहीं रहते हैं, हेय-उपादेय के ज्ञान से च्युत हैं, स्व-पर विवेक से शून्य-अज्ञानी हैं, राजा (मंत्री, नेता) आदि की सेवा (प्रशंसा/ संगती) करते हैं, धनाढ्य पुरुषों की सेवा-चाकरी (स्तुति) करते हैं वे साधु मात्र भेषधारी हैं। ये जिनधर्म के विराधक हैं। (पृष्ठ ७५-७६)
श्रमणों को दूषित करनेवाले कार्य जोइस-वेजा-मंतोवजीवणं वायवस्य ववहारं ।
धण-धण्ण-परिग्गहणं समणाणं दूसणं होई ।।१०३।। अर्थ - ज्योतिष, वैद्यक, मंत्रों की विद्या द्वारा आजीविका करना, वातादि विकार रूप भूत-प्रेत आदि को उतारने के लिए झाड़-फूंक का व्यापार करना,धन-धान्य का ग्रहण करना ये सब कार्य श्रमणों/साधुओं/ मुनिराजों के लिए दोष होते हैं। अष्टपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्ददेव लिखते हैं -
सम्मूहदि रक्खेदि अट्टं झाएदि बहुपयत्तेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्ख जोणी ण समणो ।।लिंगपाहुड-५।। अर्थात् - मुनि होकर भी जो नाना प्रकार के प्रयलों व्यापारों से परिग्रह का संचय करता है, उसकी रक्षा करता है. तथा उसके निमित्त आर्सध्यान करता है, उसकी बुद्धि पाप से मोहित है, उसे श्रमण नहीं पशु समझना चाहिये। वह मुनि कहलाने का अधिकारी नहीं है। (पृष्ठ ६८४)
जो मुनि भेषधारक हस्तरेखा, मस्तिष्क रेखा, तिल, मसा आदि देखकर ज्योतिष विद्या से आजीविका करते हैं, औषधि जड़ी-बूटियाँ बताकर आजीविका करते हैं तथा जो भूत-प्रेत आदि के लिए झाड़-फूंक कर, मंत्र-तंत्र विद्या आदि के द्वारा आजीविका करते हैं वे मुनिमेषी मात्र व्यापारी हैं, उन्हें जिनलिंग को दूषित करनेवाले ठग समझना चाहिये। (रयणसार - पृष्ठ ७६-७७)
निग्गंथो पव्वइदो वदि जदि एहिगेहि कम्मेहिं ।
सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंजदो चावि ।।३/६९।। अर्थात् - निर्ग्रन्ध मुनिपद धारण कर दीक्षित हुआ मुनि बदि इस
- कड़वे सच ...................- ३९ -
कड़वे सच
... . . . . . . . . ......
४०