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अपवाद मार्ग का मोहक किन्तु वंचनापूर्ण नाम देकर परिग्रह रखने को आगमानुसारी और उचित ठहराने को जोर-शोर से प्रयास किया जा रहा है । ऐसे में चुप बैठे रहना पाप होगा । और गलत को गलत कहने में कोई बाधा नहीं और कहना भी चाहिए । इसमें जो व्यक्ति मौन रहता है, उसका भी अपराध माना जायेगा । (श्रुताराधना (२००८) - पृष्ठ ६१) क्योंकि - जो किये जाने वाले कार्य का निषेध नहीं करता है तो वह उसका अनुमोदक माना जाता है । (तत्त्वार्थवार्तिक-६/८/९ - पृष्ठ
७११)
मरण और रोग आदि का भय इन तीन की वृद्धि होती है।
उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला में कहा है -
सप्पो इक्कं मरणं कगुरु अणंताड़ देई मरणाई।
तो वर सप्पं गहियं मा कुगुरु सेवणं भई ।।३७।। अर्थात् - सर्प तो एक बार मरण देता है और कुगुरु अनन्त बार मरण देता है, अनन्त संसार में दुबोता है । इसलिए सर्प का ग्रहण करना भी एक बार ठीक परन्तु कगरु की सेवा करना कदापि अच्छा नहीं है।
___ मौनं अर्धसंमतिः सर्वार्थसिद्धि में कहा है - सग्रन्थ (परिग्रही) को निर्ग्रन्थ मानना विपर्यय मिथ्यात्व है ।
(८/१/७३१ - पृष्ठ २९२) इस प्रकार जिनेंद्र भगवान के उपदेश के अनुसार आगम की बात कहते हैं तो चुभ जाती है । परन्तु वैयक्तिक मान्यता, परम्परा और परिस्थिति इन सब से आगम की आज्ञा बड़ी है, सर्वोपरि है । क्योंकि आगम तो स्वयं सर्वज्ञदेव के मुखकमल से निर्गत होने से सर्वोपरि प्रमाण है । (प्रवचन निर्देशिका - पृष्ठ १७) और शास्त्रविहित आचरण न करने से आगम का त्याग होता है। (भगवती आराधना (टीका)-३१०, पृष्ठ २८१) प्राकृत भावसंग्रह में कहा है -
आयमचाए चत्तो परमप्पा होई तेण पुरिसेण । परमप्पयचाएण य मिच्छत्तं पोसियं होई ।।६०८।।
जिसने आगम ग्रन्थों को नहीं माना, वह जिन परमात्मा का त्याग करने वाला, सर्वज्ञ वाणी को नहीं मानने वाला होता है । जिसने अर्हन्त सर्वज्ञ परमात्मा कथित आगम को नहीं माना वह मिथ्यात्वी होता है । (पृष्ठ १९४)
आगम केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हआ है, अतः आगम में अनुमान का प्रयोग नहीं हो सकता । (प्रवचन निर्देशिका - पृष्ठ १७७) इस तथ्य की ओर दुर्लक्ष करके आज स्वार्थी लोगों के द्वारा पंचम काल, परिस्थिति और - कड़वे सच
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खंडन की आवश्यकता क्यों ? शंका- हमेशा अपने मत का मंडन करना चाहिए, दसरों के मत को मिथ्या कहने और उसके खंडन करने की क्या आवश्यकता है?
समाधान - सर्वथा ऐसा एकांत नहीं है, चूंकि दूसरों के मिथ्यामत के स्वरूप को समझे बिना और शिष्यों को समझाये बिना उनका त्याग करना असंभव तथा यह पाखंडमतों का निराकरण तो द्वादशांग के अंतर्गत है । (प्रवचन निर्देशिका - पृष्ठ ११५) परन्तु दर्भाग्य है कि आज हम गलत को गलत कहने की हिम्मत खो बैठे हैं। और यही कारण है कि देश, समाज (और संतों) में बेशुमार बुराइयाँ हैं । (क्रांतिकारी सूत्र - पृष्ठ
६१)
आगमप्रेमियों का कर्तव्य यदि आप किसी जीव की पतित होने से रक्षा करने का प्रयत्न करते हो तो आप उसके हितैषी हो । उसका स्थितिकरण नहीं कर सकते हो तो कम से कम माध्यस्थ भाव धारण करके उसकी भक्ति करना छोड़कर उदासीन हो जाओ । किन्तु किसी के शिथिलाचार में आप सहयोगी बने तो यह निश्चित समझना कि आप उसके शत्रु से कम नहीं हो।
आचार विचार में प्रमाद ही समाज के पतन का कारण बनता है। अत: आगमप्रेमियों का कर्तव्य है कि वे रंचमात्र भी भय न करके सन्मार्ग का प्रतिपादन करें। जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा से डरना चाहिए, लोगों से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ?
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कड़वे सच ........................
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