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जिनमत के मुनिगण सब परिग्रह तज दिगंबर को धरते हैं । बस पिच्छी और कमंडल लेकर भवसागर से तिरते हैं ।।
(बुद्धि साम्राज्य - पृष्ठ ३६८) अतः सम्यक्त्व की प्राप्ति और सुरक्षा के लिए हमें शास्त्रों का अध्ययन करके सत्य क्या है और असत्य क्या है? इसको जानकर सत्य का आश्रय लेना चाहिए और सत्य का ही समर्थन करना चाहिए । अन्यथा यदि हम अज्ञानता से परिग्रही साधुओं को भी गुरु मानते रहे तो सम्यक्त्व के अभाव से हमारा संसार और दुःख बढ़ता ही रहेगा. उनका कभी अन्त ही नहीं होगा। इसलिए यह दुर्लभ मनुष्य जन्म व्यर्थ नहीं गंवाकर हमें सत्य मार्ग जानना चाहिए ।
ज्ञान-महर्षि प्रश्नोत्तरी में यही चर्चा निम्न प्रकार से की गई हैप्रश्न १७३ : कैसे मुनि पूज्य गिने जाते हैं ? उत्तर : जो राग-द्वेष-मोहादि अंतरंग परिग्रह से रहित हैं, बाह्य परिग्रह के त्यागी हैं और सुदृढ़ चारित्र पालन करने वाले हैं ऐसे गुरु ही वंद्य और पूज्य हैं । (पृष्ठ ४५) प्रश्न ३०६ : भेषी गुरुओं के लिये जो ऊपर इतना कहा है, उस सबका क्या तात्पर्य है ? उत्तर : तात्पर्य यही है कि जो किसी बहाने से परिग्रह धारण करते हैं वे गुरु कभी बंध (वंदना के योग्य) नहीं हो सकते । (पृष्ठ ७२) प्रश्न 10 : जो मुनि भेषी परिग्रह सहित हैं वे कैसे हैं ? उत्तर : जो मुनि होकर भी परिग्रह रखने की आकांक्षा रखते हैं वे निंद्य कुत्तों के समान हैं । (पृष्ठ १०१)
आ. कुशाग्रनन्दि की यह न्यायपूर्ण वाणी सबको सुहावनी नहीं लगेगी । क्योंकि जिस जीव का पुण्य क्षीण हो चुका है, उसकी विचारशक्ति भी क्षीण हो जाती है । परन्तु सत्यासत्य का निर्णय प्रभावकता या अप्रभावकता से नहीं, आचरण के माध्यम से होता है । इसलिए - जैनमार्ग में मात्र भेष (नग्नता और पिच्छी-कमंडलू) नहीं पूजा
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जाता, भेष के अनुसार गुण हो तो ही वह गुरु पूज्य है, अन्यथा नहीं । (श्रावकधर्मप्रदीप - पृष्ठ ४९)
क्षुल्लिका अजितमती की दीक्षा के अवसर पर आ. शान्तिसागर महाराज ने उनको जो उपदेश दिया था वह सबके लिए मार्गदर्शक है । महाराज ने कहा था - चारित्र उज्वल ठेवून तीन दिवस जरी जगलात तरी ते श्रेष्ठ आहे. पण चारित्रभ्रष्ट होऊन शंभर वर्षे जगलात तरी काय उपयोग? ते हीन आहे. (अजितमती साधना स्मृतिगंध - पृष्ठ ८६) अर्थात् - चारित्र को उज्वल रखकर तीन दिन जिना भी श्रेष्ठ है, किंतु चारित्रभ्रष्ट होकर सौ वर्ष भी जिये तो उसका मूल्य क्या है ? कुछ भी नहीं ।
कुगुरु-सेवा का परिणाम जो मात्र नग्न शरीर लिये हैं, परन्तु पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्रपालन से शून्य हैं, (क्षेत्र) मठादि के निर्माण में अपनी पर्याय को नष्ट कर रहे हैं, ... द्रव्यसंयम के गुणों से भी शून्य हैं, वे श्रमणाभास हैं- श्रमण नहीं हैं। (स्वरूप-सम्बोधन परिशीलन - पृष्ठ १२३)
अष्टपाड में कहा है -
जे वि च पडंति च तेसिं जाणंता लजगारवभयेण । तेसि पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ।।दर्शनपाहुड १३।। अर्थात - जो (उनको परिग्रही) जानते हए भी लज्जा, गौरव, और भयसे उन मिथ्यादृष्टियों के चरणोंमें पड़ते हैं - उन्हें नमोऽस्तु आदि करते हैं, वे भी पापकी अनुमोदना करते हैं। अत: उनको रत्नत्रयकी प्राप्ति नहीं होती।
आ. वीरसागर स्मृति ग्रन्थ में उद्धृत एक श्लोक में कहा हैअपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां च व्यतिक्रमः ।
वीणि तत्र प्रवर्धन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ।। (पृष्ठ ४१) अर्थात् -(परिग्रही, असंयमी आदि) अपूज्य साधुवेषी जहाँ पूजे जाते हैं और (निर्ग्रन्थ अर्थात् अपरिग्रही रहनेवाले तथा शास्त्रोक्त आचरण करनेवाले) पूज्य (मुनियों) का अनादर होता है, वहाँ पर दुर्भिक्ष,
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