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आप डूबें, सभीको डुबावें, ऐसे मूढ़ सग्रन्थ ऋषिराज || मोह को महा शत्रु जानकर, छोड़ा था सब संग-घर-बार । परिग्रह रखते हुवे वो ही, अब काहे भूले वह विचार || उनकी इस दुरवस्था का यथार्थ चित्रण करते हुए श्रुतपंचमी पूजा की जयमाला में आ. गुप्तिनन्दि कहते हैं -
कुछ वस्त्र छोड़ निर्ग्रन्थ बने, निर्ग्रन्थ स्वरूप न पहिचाना ।
इससे आगे न निकल सके, समता सुख क्या है ना जाना ।। ( श्री रत्नत्रय आराधना पृष्ठ १६९)
अत्यावश्यक वस्त्रादि को छोड़कर शेष मोबाईल, कम्प्युटर, मोटर आदि परिग्रहों का त्याग तो नौवीं परिग्रहत्याग प्रतिमा में ही हो जाता है।
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वसुनन्दि श्रावकाचार में कहा भी है।
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मोत्तूण वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं । तत्थ विमुच्छं ण करेड़ जाणइ सो सावओ णवमो ।। २९ ।।
अर्थ - जो वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है। और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रह में भी मूर्च्छा नहीं करता है, उसे परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी नौवां श्रावक जानना चाहिए। (पृष्ठ २७४ -२७५)
इससे स्पष्ट होता है कि मुनि-आर्यिका तो दूर, क्षुल्लक के लिए भी नॅपकीन, मोबाईल, मोटर, लॅप-टॉप, नौकर-चाकर, सुवर्ण और रत्नों की मालाएँ, नेलकटर आदि परिग्रह रखना निषिद्ध है। फिर भी शास्त्राज्ञा को अनदेखा करके परिग्रह रखनेवाले साधुवेशधारी सग्रन्थों को मूलाचार प्रदीप में आचार्य सकलकीर्ति कठोर शब्दों में फटकारते हैं।
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पूर्वं त्यक्त्वाखिलान् संगान्, कटिसूत्रादिकान् ततः । इष्टवस्तूनि गृह्णाति यः सोऽहो किं न लज्जते ।। २५५ ।। अर्थात् - जो मुनि पहले तो करधनी आदि समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देता है; और फिर वह (नॅपकीन, मोबाईल, टीवी, कम्प्युटर, गाड़ी, तेल, नेलकटर आदि) इष्ट पदार्थोंको ग्रहण करता है। अहो ! आश्चर्य है कि वह फिर भी लज्जित नहीं होता है। (पृष्ठ ३८)
कड़वे सच
परिग्रह को धारण करने वाला जिनेन्द्र के मार्ग में पूर्णतया लगा हुआ निर्ग्रथ नहीं माना जाता है। परिग्रह को धारण करते हुए पूर्ण रत्नत्रय का पालन नहीं बनता है। (स्याद्वाद केसरी पृष्ठ ४९ ) अर्थात् परिग्रहसहित अणुव्रत तो हो सकते हैं किन्तु परिग्रह रखते हुए महाव्रत नहीं हो सकते । यह शास्त्रोक्त कथन मुनि आर्यिका ऐलक क्षुल्लक क्षुल्लिका इन सभी त्यागियों के लिए सम्पूर्णतः नियामक है। क्योंकि परिग्रह विकल्पों को उत्पन्न करते हैं, जिससे ध्यान नहीं हो पाता है। फलतः कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती । अपितु परिग्रह के कारण उनको अशुभ कर्मों का निरन्तर आस्रव अवश्य होता रहता है।
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संसार का बढ़ना अरे ! नर देह की यह हार है । नहीं एक क्षण तुझको अरे ! इसका विवेक विचार है ।। ( अमूल्य तत्त्व विचार-४)
विकल्प
विशेष उल्लेखनीय बात है कि तालाब, बाग तथा पर्वत आदि को देखने के लिये तथा लौकिक आनन्दके निमित्त निश्चयसे मुनि कभी विहार नहीं करते हैं। (सम्यक् चारित्र चिन्तामणि - ४ / ५-६, पृष्ठ ४५-४६ )
जब आ. शान्तिसागर महाराज आगरामें थे तब उन्होंने कलापूर्ण आगराके २२ जिनमंदिरोंका ध्यानसे दर्शन किया, किन्तु जगद्विख्यात ताजमहल देखनेकी इच्छा भी न की। शाहजहाँके किलेको देखनेकी तनिक भी आकांक्षा न की । (चारित्र चक्रवर्ती पृष्ठ २५१)
इसके पीछे यह कारण है कि मुनिदीक्षा का उद्देश्य आत्मतत्त्व को जानना है, दुनिया के पदार्थों को जानने का प्रयत्न करना उनके लिए घातक है । यहाँ यह बात जानने योग्य है कि आ. शान्तिसागर महाराज का राजनीति से तनिक भी सम्बन्ध नहीं था । समाचारपत्रों में जो राष्ट्रकथा आदि का विवरण छपा करता है, उसे वे न पढ़ते थे, न सुनते थे। उन्होंने जगत् की ओर पीठ कर दी थी। परन्तु सांसारिक विकल्पों के जंजाल से मुक्त होने के लिए गृहत्याग करनेवाले साधु जब समाचारपत्र पढ़ते हुए अथवा मोबाईल लेकर दुनियाभर की बाते करते हुए दिखते हैं तब समझ
कड़वे सच
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