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संतों को छोड़कर भोगियों को गुरु मानता है और उन्हें गुरु, सद्गुरु, परम गुरु कहकर संबोधित करता है । (अमृत कलश (२) - पृष्ठ १) अनगार धर्मामृत में कहा भी है।
सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु
अर्थात् - जो सब प्रकारकी वस्तुओंके अभिलाषी हैं, सब कुछ खाते हैंजिनके भक्ष्य अभक्ष्यका विचार नहीं है, परिग्रह रखते हैं, ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करते तथा मिथ्या उपदेश करते हैं वे गुरु नहीं हो सकते। ( पृष्ठ ९८-९९ )
जो मुनि दिन-रात लोगों के साथ उनके घर-व्यापार तथा दुनियादारी की बाते करके अथवा आनन्दयात्रा आदि आयोजनों के द्वारा जनमनरंजन नहीं करते हैं, अपितु निरन्तर स्वाध्याय-ध्यान वा तप में लीन रहते हैं, नॅपकीन, मोबाईल, लॅप-टॉप, मोटर आदि तो दूर, अपने पास फोटो तक नहीं रखते हैं, ऐसे किसी अपरिग्रही मुनि को देखकर अब लोगों की प्रतिक्रिया ऐसी होती है मानो सभ्य मनुष्यों की सभा में अचानक कोई बन्दर आ गया हो । पद्मपुराण में कहा है।
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जातरूपधरान् दृष्ट्वा साधून् व्रतगुणान्वितान् ।
संजुगुप्सां करिष्यन्ति महामोहान्विता जना: । । ९२ / ६२ ।। अर्थात् - तीव्र मिथ्यात्वसे युक्त मनुष्य व्रतरूप गुणोंसे सहित एवं दिगंबर मुद्राके धारक (अपरिग्रही) मुनियोंको देखकर ग्लानि करेंगे। (भाग ३ पृष्ठ १८०) सो ही आज हो रहा है ।
स्वार्थी व्यक्ति निज स्वार्थ के पीछे साधु पुरुष को भी असाधु समझते हैं किन्तु ऐसे अज्ञानी लोग यह विचार नहीं करते कि तत्त्वार्थसूत्र में सत्यव्रत की पाँच भावनाओं में एक भावना हास्य का त्याग करना कही है। यथा
क्रोध-लोभ- भीरुत्व- हास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीचि भाषणं च पञ्च ॥७/
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क्योंकि जो साधु हँसीमजाक आदि रूप बहुत बोलता है वह इन कड़वे सच
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कार्योंके निमित्तसे वाहन जातिके देवोंमें जन्म लेता है । (मूलाचार पूर्वार्ध - पृष्ठ ६९ )
मूलाचार में भी मुनियों को हास्यकथा, राजकथा, राष्ट्रकथा, अर्थकथा आदि विकथा नहीं करने का ही आदेश लिखा हुआ है। क्योंकि जिनदीक्षा लोगों का मनोरंजन करने अथवा परकल्याण के लिए नहीं अपितु केवल आत्महित करने के लिए ही ग्रहण की जाती है।
सद्गुरु
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गणधराचार्य कुन्थुसागर उपदेश देते हैं बिना गुरु तुम्हारा कल्याण कभी नहीं होगा, लेकिन गुरु भी हो तो उसका लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार में बताया है।
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विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रह ।
ज्ञान-ध्यान- तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ||१०||
जो विषयों की आशा से रहित हो और जो साधु के योग्य जो कार्य स्वयं का ज्ञान, ध्यान और तप में लीन हो । ये तीन लक्षण जिसके अन्दर पाये जाये उसी का नाम सद्गुरु है । (स्याद्वाद केसरी - पृष्ठ १५१ - १५२) और सद्गुरु कहलाने वाला स्वयं विकृत है, स्वयं भिखारी है, स्वयं अशांत है, स्वयं क्रोधी, मानी, मायी, लोभी है तो उसके आश्रय में आने वाले भव्य जीवों को वो सही मार्ग नहीं बता सकता । (पृष्ठ १५३)
सभी प्रकार के परिग्रह के त्यागी श्री आदिसागरजी महाराज के पास पिच्छी- -कमण्डलु के अलावा कुछ भी नहीं था । (विश्व का सूर्य पृष्ठ ९४ ) ऐसी शास्त्रोक्त चर्या का पालन करनेवाले ऐसे मुनियों को देखने की लोगों को उत्कट इच्छा रहती थी, क्योंकि वैराग्य रस से सराबोर मुनि ही सच्चे सुख का मार्ग दिखा सकते हैं। कवि भूधरदास उन निर्ग्रन्थअपरिग्रही मुनियों के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हुए कहते थे।
वे गुरु मेरे उर बसों, जो भव जलधि जिहाज । आप तीरे और तारहिं, ऐसे श्री ऋषिराज ॥
परन्तु
वर्तमान परिस्थिति में कोई भी विवेकी मनुष्य यही कहेगा ऐसे गुरु मेरे मन न बसों, जो भव जलधि में उपल जिहाज ।
कड़वे सच
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