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यह एक दृष्टांत (example)
। अशुद्ध संसारी मानवी जीव विवेक से, विचार-मंथन से और तप से पूर्ण शुद्ध होता है । जीव की पूर्ण शुद्धि याने निर्वाण या मोक्ष है । जिस प्रकार अग्नि में सिंचित ( sprinkled) घी अग्निस्वरूप होता है उसी प्रकार आत्मिक शुद्धि से जीव मोक्ष प्राप्त करता है ।
संसारी जीव के शुद्धिकरण (purification) की प्रक्रिया में धर्म सहायक होता है । जो व्यक्ति मूलत: सरलस्वभावी (straight forward) है उसे आत्मिक उन्नति (spiritual progress) में धर्म मददगार होता है ।
प्रस्तुत गाथा 'उत्तराध्ययनसूत्र' नाम के अर्धमागधी ग्रंथ से उद्धृत की है । उदाहरणों के द्वारा धर्म के तत्त्व समझाना उत्तराध्ययनकी खासियत है । श्वेतांबर परंपरा के अनुसार 'उत्तराध्ययनसूत्र' भ. महावीर की अंतिम वाणी है
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(४) हिंसारंभो ण सुहो
'कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा' ग्रंथ की इस गाथा में 'हिंसा' में अनुस्यूत् (intended) (incorporated) 'पाप' और 'दया' में 'अनुस्यूत 'धर्म' का जिक्र किया है ।
जैन शास्त्र में ‘हिंसा' का पर्यायवाची नाम 'आरंभ' है । कुछ लोग इस प्रकार विचार करते हैं कि देव अथवा ए के निमित्त की जानेवाली हिंसा 'हिंसाकोटि' में नहीं आती । जैसे कि भगवद्गीता में कहा है, “यज्ञ के लिए किये हुए कर्म बंधनकारक नहीं होते ।” जैन दृष्टि से यह विचार उचित (proper ) नहीं है । देव-गुरु-धर्म किसी के भी नामपर की गयी हिंसा 'पाप' ही है । इस में अपवाद (exception) नहीं है ।
जबरदस्ती से कराया हुआ धर्मांतर (conversion), धर्म के नामपर छेडे गये युद्ध, जिहाद आदि को जैन धर्म में कुछ भी स्थान नहीं है । सब हिंसा के ही अन्यान्य रूप (varied forms) हैं ।
अब सोचना चाहिए कि आजकल जैन धार्मिक आचार में भी पूजा-प्रतिष्ठा, दिखावा, बोलियाँ, उपवास का आडंबर, भोजन-समारंभ, जन्म-दीक्षा जयंती महोत्सव, कई प्रकार की किताबें छपवाना, विविध प्रतियोगिताएँ, लकी कूपन्स, नृत्य-गायन के समारोह आदि नयी नयी बातें आने लगी है । इस में से किसको 'धर्म की प्रभावमं मानी जाय और किसको ‘निरर्थक आरंभ' माना जाय, यह साधुवर्ग और श्रावकवर्ग के सोचविचार की बात है ।
आचार्यश्री ने गाथा में कहा है कि धर्म की आधारशिला 'दया' है । पंचेंद्रियों की हिंसा तो हम नहीं करते लेकिन सूक्ष्मता से देखे तो, 'विविध आडंबरों में निहित आरंभ-समारंभ भी क्या टालने योग्य हैं ?' इसके ऊपर भी समा में विचारमंथन होना चाहिए ।
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(५) धम्मं ण
मुदि
धर्माचरण के बारे में एक से बढकर एक कठिन बातें कौनसी है, इसका जिक्र इस गाथा में किया है ।
१) 'धर्म' का सच्चा स्वरूप पकड में आना पहिली कठिनाई है ।
२) कौटुंबिक संस्कार, गुरु का उपदेश, शास्त्रों का वाचन, उसके ऊपर गहराई से विचार, आदि के द्वारा धर्म का तत्त्व बडी मुश्किल से जाना जा सकता है ।
३) अहिंसा, संयम, तप, दया, दान, अपरिग्रह आदि तत्त्व और उनकी व्याख्याएँ आदि का रटन (pit-pat) करके उसके ऊपर हम व्याख्यान भी दे सकते हैं । लेकिन प्रत्यक्ष व्यवहार की बात आएँ तो अनेक भौतिक वस्तुओं से मिलनेवाला सुख पाने की (material pleasures) लालसा (lust) से उच्च तत्त्वों का विसर्जन कर देते हैं । मोहरूपी पिशाच (gobling) मानो हमें गुमराह कर देता है ।
धर्म का ज्ञान और धर्म के आचरण के बीच लोभ-मोह के भूत-पिशाच खडे हैं । इन्हीं को जैन धर्म ने 'कषम'