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________________ केवलियों के उपदेश सुनने के लिए या वंदन-भक्ति करने के लिए देवों के समूह भी आते थे । भक्तामर स्त्र के आरंभ की पंक्ति में यही बात कही है । देवोंद्वारा वंदित होने के लिए मानव को चाहिए की 'धर्म' की भावना उसमें सदाकाल (24X7) उपस्थित होनी चाहिए । 'धर्म' कोई कभी-कभार प्रसंगवश करने की चीज नहीं है । अहिंसा, संयम और तप जैसे तत्त्वों से, जो जागृति में ही क्या सपने में भी नहीं बिछुडता, ऐसे मानवी जीवों को देव भी पूजार्ह मानते हैं । ___जैनों ने माना है कि चौबीस तीर्थंकर मनुष्यकोटि में जन्म पाकर मोक्षगामी हुए हैं । वे कोई विष्णु के मानवी 'अवतार' नहीं है । चेतनत्व (consciousness) की सर्वोच्च शुद्ध अवस्था प्राप्त करवाने की क्षमता (quality) 'धर्म' में है । इसी कारण वह मंगल और उत्कृष्ट है । ********** (२) धम्मो वत्थु-सहावो --- 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' दिगंबर संप्रदाय का एक प्राचीन (ancient) ग्रंथ है । यह शौरसेनी' नाम की प्राकृत भाषा में लिखा है । अध्रुव (transitoriness), अशरण (helplessness), एकत्व (loneliness) आदि भावना जैन शास्त्र में 'अनुप्रेक्षा' (reflections) नाम से पहचानी जाती है । उसमें एक है - 'धर्म' भावना । प्रस्तुत गाथा में 'धर्म' की चार व्याख्याएँ या स्पष्टीकरण पाये जाते हैं । १) हरेक वस्तु (real object) का जो स्वभाव, स्वाभाविक गुणधर्म है, उसे 'धर्म' कहा है । जैसे 'शीतलता' पानी का अथवा 'उष्णता' अग्नि का 'धर्म' है । यह व्याख्या वैज्ञानिक (scientific) शाखाओं की तरह वस्तुनिष्ठ (objective) है। २) गाथा की प्रथम पंक्ति के उत्तरार्ध में क्षमा (forbearance, forgiveness), मार्दव (modesty, humility), आर्जव (straight forwardness) आदि दस उच्च नैतिक मूल्यों (ethical values) को अथवा सद्गुणों (virtues) को 'धर्म' कहा है । इस स्पष्टीकरण से हमें सद्गुणों से युक्त होने की प्रेरणा मिलती है । ३) गाथा की दूसरी पंक्ति में 'रत्नत्रय' याने सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र को 'धर्म' कहा है । (Enlightened world-view, knowledge and conduct) ये तीनों तत्त्व रत्न जैसे मूल्यवान (valuable) और स्वयंप्रकाशी (selfilluminating) कहे गये हैं । ये तीनों जैन शास्त्र के मूलाधार (foundation) है । ४) गाथा के अंत में अन्य जीवों की रक्षा करने की दृष्टि और व्यवहार' को धर्म कहा है । सभी प्रकार की ह्रसा तो हम टाल नहीं सकते लेकिन अनावश्यक (unnecessary) हिंसा टालने का आदेश यहाँ दिया है और उसे 'धर्म' कहा है । खानपान, वस्त्र, वाहन आदि की मर्यादा करके हम 'जीवरक्षा' कर सकते हैं । वाणी के अथवा क्रोधआदि के संयम (control) से भी हिंसा टाली जा सकती है। चार भिन्न भिन्न पहलूओं से यहाँ 'धर्म' की व्याख्या करने का सराहनीय प्रयास किया है । ********** (३) सोही उज्जुयभूयस्स --- यहाँ ‘घय' का मतलब है ‘घी' और 'पावर' का मतलब है ‘पावक' याने पावन, पवित्र करनेवाला ‘अग्नि' । 'दूध' मानवी आरोग्य ठीक रखने में बहुत ही उपयुक्त चीज मानी गयी है । 'दूध' नैसर्गिक अवस्था में रखें तो जल्द ही खराब हो जाता है । अग्नि पर तपाए तो कुछ घंटे 'शुद्ध' रखा जा सकता है । उसपर मलाई जमा होती है। उपयुक्त सद्विचार रूपी दही मलाई में अच्छी तरह घुले-मिले तो विचार-मंथनरूप बिलौनी से नवनीत-मक्खन बनता है । मक्खन में भी अशुद्धि तो होती ही है । अग्नि पर तपाकर धीरे धीरे घी बनता है । घी को और तपाए तो अति-शुद्ध घी स्वयं अग्निस्वरूप हो जाता है ।
SR No.009953
Book TitleJainology Parichaya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2010
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 KB
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