________________
केवलज्ञान की प्राप्ति के अनंतर व्यक्ति अवश्य मोक्षगामी होता हैं ।
(३) एवं पंचविहं नाणं ---
___ पाँचों प्रकारों के ज्ञानों में वस्तु के द्रव्य (substance) गुण (qualities) और पर्यायों (modes, modifications, variations) का ज्ञान होता है । केवलज्ञान में द्रव्य के सभी गुण और सभी पर्यायों का समग्र ज्ञान प्राप्त होता है । बाकी चार ज्ञानों में यह ज्ञान आंशिक होता है ।
__ उदाहरणार्थ, ‘सुवर्ण' एक पदार्थ याने (substance) है । चमकीलापन, घनता आदि उसके गुण हैं । विविध प्रकार के अलंकार उस सोने के ही विविध पर्याय हैं । जैन शास्त्र के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव ये छह 'द्रव्य' हैं । ये सभी द्रव्य हमेशा गुण और पर्यायसहित होते हैं । उनसे वियुक्त नहीं होते ।
ऊपर सुवर्ण का जो उदाहरण दिया है वह वस्तुत: पुद्गल द्रव्य का एक पर्याय ही है ।
(४) जो पोग्गलदव्वाणं ---
_ 'समयसार' यह ग्रंथ आचार्य कुंदकुंद का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है । 'समय' शब्द के विविध अर्थ हो सकते हैं लेन यहाँ 'समय' शब्द आत्मा अथवा सिद्धांत इन अर्थों से लिया गया है । यह ग्रंथ पूरा का पूरा सैद्धांतिक एवं आध्यत्मिक (spiritual) है।
__इस गाथा में आचार्य कहते हैं कि हमारे आसपास जो भी मूर्त पदार्थ दिखायी देते हैं वे सभी ‘पुद्गल' द्रव्य के पर्याय ही हैं । हीरा, सोना, पन्ना, पत्थर, मिट्टी सभी पुद्गलमय हैं । उनपर हम हमारे मोहवश मूल्यवान आदि गुणधर्म थोपते हैं । उनके प्रति लोभ या द्वेष रखते हैं । इन कषायों के कारण हमें ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के ब्ध होते हैं । ज्ञानी व्यक्ति इन सबका पुद्गल रूप जानकर रागी या द्वेषी नहीं बनता । इस प्रकार मूल स्वरूप का ज्ञान हमें रागी-द्वेषी बनने से, कर्मबंधन से दूर रखता है ।
(५) जीवाजीवविहत्ती जो जाणइ ---
इस गाथा में सम्यक्ज्ञानी का स्वरूप अलग तरह से स्पष्ट किया है । जीव और अजीव इनमें जो भेद है वह ठीक तरह से जो जानता है, उसे 'सम्यक्ज्ञानी' कहा है । षड्द्रव्य में से जीवद्रव्य ज्ञानचेतनामय है । जीव में ही ज्ञान दर्शन आदि अनंत शक्तियाँ है । बाकी सब द्रव्य अचेतन है । उनमें सोच-विचार आदि की शक्ति भी नहीं है । जीवद्रव्य के ही बंध और मोक्ष संभव है । अजीव के संपर्क में आनेपर भी पुरुषार्थयुक्त होकर व्यक्ति मोक्षगामी हो स्कता है । जीव की अन्य द्रव्यों से विशेषतः जो ठीक तरह से जानता है तथा इस ज्ञान के आधार से रागादि दोषों से रहितहोता है, वह मोक्षमार्गी होता है ।
(६) सुद्धणया पुण णाणं ---
जिसकी दृष्टि मिथ्या है, वह कितना भी ज्ञान प्राप्त करे, सब अज्ञान में ही परिणमित होता है । ज्ञान की सच्ची आराधना के लिए दृष्टि सम्यक् होना अपेक्षित है । इसलिए मिथ्यादृष्टि सच्चे ज्ञान का और क्रम से मोक्षमार्गका भी आराधक नहीं हो सकता ।
(७) तवरहियं जंणाणं ---
व्यक्ति के पास शाब्दिक ज्ञान का भंडार है लेकिन बाह्य और अंतरंग तपों का अभाव है, तो वह ज्ञान कृतार्थ नहीं होता । दूसरा आदमी बहुत सारे बाह्यतप करता है लेकिन ज्ञान और विवेकपूर्वक नहीं करता । मतलब यहहै कि तप और ज्ञान एकदूसरे के पूरक है । एकदूसरे के बिना अधूरे भी है । इनकी स्थिति अंध-पंगु-न्याय' के समान