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________________ में विनय शिक्षा का फल भी है । मूल और फल ये दोनों रूपों में विनय कल्याणकारक ही है । (७) अणासवा थूलवया --- उत्तराध्ययनसूत्र के प्रथम 'विनयश्रुत' अध्ययन की इस गाथा में परस्परविरोधी स्वभाव के दो शिष्यों का वर्णन किया है । ये दोनों शिष्य अपने-अपने स्वभावविशेषों के कारण गुरु में ही बदलाव लाते हैं । पहला शिष्य ‘अनश्रव' याने गुरु का हितोपदेश नहीं सुननेवाला, 'स्थूलवच' याने अनाब-शनाब बोलनेवाला और 'कुशील' याने चारित्र्यहीम है । दुर्गुणों से भरा हुआ यह शिष्य, स्वभाव से मृदु होनेवाले गुरु को भी प्रसंगवश चंड बनाता है, याने केधित कराता है । इस प्रकार के दुर्गुणी शिष्य का वर्णन एक जैनकथा में आता है । चंडकौशिक के पूर्वभव की कथा,इसके बारे में हमेशा उदाहरण के तौर पर दी जाती है । दूसरे प्रकार का शिष्य 'चित्तानुग' याने गुरु का मन जाननेवाला और दाक्षिण्य' (courtesy, chivalry) से युक्त है । अपने इन गुणों के कारण मार्गभ्रष्ट गुरु को भी वह ठिकाने लाता है । इसके बारे में शैलक राजषिऔर पंथक शिष्य की कथा ‘ज्ञाताधर्मकथा' में पायी जाती है । ‘विनीतता और अविनीतता दूसरों में बदलाव ला सकती है' इसका प्रत्यय इस गाथा से एवं उससे जुडी हुई कथाओं से आता है। (८) नापुट्ठो वागरे किंचि --- उत्तराध्ययन की इस गाथा में आदर्श विनयी शिष्य का वर्णन है । गुरु के प्रति शिष्य ने किस प्रकार के भाव धारण करने चाहिए इसका जिक्र किया है । न पूछने पर भी बडबड करते रहना, अध्यापन में बाधाकारक होता है । गुरु के क्रोध के ड से, शिष्य ने असत्य बोलना, अंतिमतः शिष्य के लिए हानिकारक हो सकता है । शिष्य को चाहिए कि वह गुरु के प्रताज को भी अथवा स्तुति को भी शांतता से धारण करे । क्योंकि दोनों उसे ही अंतिमत: लाभदायक है। सामान्यत: जैनशास्त्र में अप्रिय सत्य न बोलने का निर्देश दिया जाता है । लेकिन इस गाथा से यह सूचित होता है कि गुरु प्रसंगवशात अप्रिय सत्य बोलते हैं और सच्चे शिष्य ने वह सत्य अप्रिय होनेपर भी गुरु के प्रति द्वेषभाव नहीं धारण करना चाहिए। (९) थंभा व कोहा व मयप्पमाया --- प्राकृतिक परिवेश में बांस किस प्रकार बढते हैं और किस प्रकार नष्ट होते हैं, इस निरीक्षण पर आधारित यह गाथा है । अपने पुत्र एवं शिष्य ‘मणक' को अविनय से होनेवाली हानि समझाने के लिए, शय्यंभवाचार्य ने बांसका उदाहरण दिया है। __बांस को हर साल ‘फूल' नहीं लगते । दस-बारह साल में कभीकभार बांस पुष्पित, फलित हो जाता है । उसके बारे में प्राकृतिक योजना इस प्रकार रहती है कि जब भी बांस पुष्पित, फलित होता है, उसी समय उस बांस का अस्तित्व विनष्ट हो जाता है । याने उसके फूल और फल उसीके विनाश के लिए हेतुभूत हो जाते हैं। गुरुकुलवास (शिक्षा का काल) सामान्यत: बारह वर्ष का ही रहता है । शिक्षाकाल में शिष्य ने अगर अहंकार, मद, क्रोध आदि दुर्गुणों का परिपोष किया, तो वही मानों उसकी शिक्षा का फूल और फल बन जाता है ।इतनी सारी शिक्षा के बावजूद अगर विद्यार्थी मानी, क्रोधी आदि हो जाय, तो ये दुर्गुण आगे जाकर उसके अपयश और विनश का ही कारण बनेंगे । यही बोध इस गाथा से हमें प्राप्त होता है । गुरु तो सभी शिष्यों को समान रूप से विद्या प्रदान करता है । अविनयी शिष्य ने अगर वह शिक्षा अहंकार,
SR No.009953
Book TitleJainology Parichaya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2010
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 KB
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