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________________ कुशाग्रबुद्धि वाले मंत्रीश्वर ने भी दूसरे पक्ष को अपना बचाव करने के लिए योग्य अवसर दिया । मंत्रीश्वर ने कहा, "इस विषय में आपको कुछ कहना है ?" मुनिवरों ने अवसर का लाभ उठाते हुए कहा, "महामात्य ! इन भाग्यशालियों की बात बिल्कुल सत्य है कि हम यात्रिककर भरे बिना ही गिरि आरोहण करके परमात्मा के दर्शन करके आए हैं, लेकिन..... मंत्रीश्वर ! आप ही बताईए कि हमारे जैसे मुण्डितों के लिए यात्रिककर कैसे हो सकता है? हम तो अपरिग्रही हैं। हमारे पास पैसा कहाँ से आए? मंत्रीश्वर । ३-३ दिनों से हम परमात्मा के दर्शन के लिए तडप रहे हैं। अरे ! हमारी भी सहनशीलता की कोई हद है? परमात्म दर्शन करने के लिए पैसे भरने? यह कहाँ का न्याय है? महापवित्र - परमकल्याणकारी अनंत तीर्थंकरों के कल्याणकों से पुनित बनी इस पावनभूमि की सुवास लेने के पैसे दिए जाए मंत्रीश्वर ! यह तो राज्य के साथ महाराजा के लिए भी अत्यन्त शरमजनक बात है। आप जैसे प्रचंडपुण्य और तीक्ष्णबुद्धि के स्वामी ऐसे अवसर पर योग्य न्याय नहीं देंगे तो दूसरा कौन न्याय करेगा । मंत्रीश्वर ! वर्षों से चलती आ रही इस अनुचित परम्परा का विच्छेद होना ही चाहिए। मुनिवरों की अस्खलित वागधारा को अपलक नयनों से निहारते हुए मंत्रीश्वर भी अवाक् बन गए । दो पल के विलंब के बाद उन यात्रिककर अधिकारियों की तरफ दृष्टि करते हुए मंत्रीश्वर ने कहा कि, "महात्माओं की इन बातों के विषय में आपका क्या अभिप्राय है?" मंत्रीश्वर ! महात्मा की बात सत्य होगी परन्तु वर्षों से चल रही हमारी इस परम्परा को थोडी भी आंच आए, यह हम कैसे सहन करें । प्रत्येक व्यक्ति के ५ द्रम तो हमें मिलने ही चाहिए । इस तरह अधिकारियों ने अपने हृदय की बात कही। मंत्रीश्वर ! थोडी देर के लिए चिंतन करने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने गंभीरतापूर्वक उन अधिकारियों से कहा कि, "भाइओं! एक तरफ इस सृष्टि के आधार समान ये महात्मा हैं और दूसरी तरफ प्रजाजन ! प्रातः स्मरणीय इन गुरुभगवंतों की भावना का उल्लंघन करना ठीक नहीं है। दूसरी तरफ आप सभी की आजीविका की वास्तविकता भी नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकती । ऐसे संयोग में आप सभी मिलकर कोई बीच का रास्ता निकालिए यही इच्छनीय है।" मंत्रीश्वर की बात सभी को विचारणीय लगी, क्योंकि रोज-रोज यात्रिककर इकट्ठा करने में आती हुई समस्याओं का अनुभव तो सभी को था ही। परन्तु यात्रिककर के सिवाय आजीविका का अन्य कोई विकल्प नहीं था। ऐसे में बीच का रास्ता निकालने के लिए वे आपस में चर्चा कर रहे थे, परन्तु उन्हें कोई रास्ता मिल नहीं रहा था । तब मंत्रीश्वर ने ऊंची आवाज में कहा कि,
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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