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________________ के मस्तक का तिलक उनके खानदान और जैनधर्म की शोभा को बढानेवाला है। यदि आपकी आज्ञा हो तो उस युगल को आपके सामने उपस्थित करूं।" जिस तरह जौहरी हीरे के मूल्य को जानता है, उसी तरह महाराजा ने उस पुण्यशाली बंधुयुगल को ललाट के चिन्हों से योग्य जानकर अत्यन्त हर्षोल्लास पूर्वक राज्य का कार्य भार सौंपकर परम आनंद का अनुभव किया । राज्यभार के सुव्यवस्थित संचालन की सुवास आसपास के गांवों में फैलने लगी । ज्येष्ठ बंध वस्तपाल को धोलका और खंभात का मंत्रीपद दिया गया, और तेजस्वी तेजपाल को राजसैन्य के सेनाधिपति का पद दिया गया । दोनों बंधुओं ने अपने शौर्य और समझदारी के समन्वय से राजा और प्रजा के हृदय के साथ-साथ राजभण्डारों को भी भर दिया । सर्वत्र शांति और समाधि का संगीत गुंज उठा । राजकार्य के साथ-साथ जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा को वफादार ऐसे दोनों भाइयों की कीति सर्वत्र फैलने लगी । अष्टमी, चतुर्दशी के तप के साथ सामायिक प्रतिक्रमण आदि नित्य आवश्यक के पालन के साथ परमात्म भक्ति, साधर्मिक भक्ति और अनुकंपादि चतुर्विध धर्म प्रवृत्ति में सतत व्यस्त रहते... अनेक जिनालयों के निर्माण का लाभ लेकर सद्गति को प्राप्त करने के प्रयत्न में लीन रहते थे। एक बार गिरनार गिरिवर की संघ के साथ यात्रा करने का अवसर आया। दूसरी तरफ अनेक गाँवों से उग्रविहार करके बालब्रह्मचारी नेमिप्रभु के मिलन के मनोरथ के साथ अनेक महात्मा गिरनार गिरिवर की तलहटी पर पहुँचे । अनंत तीर्थंकरों के कल्याण की इस कल्याणक भूमि की स्पर्शना की संवेदनाओं के द्वारा शिवपद की साधना करने के लिए गिरनार के सोपान चढने लगे। हृदय में हर्ष का पार न था । परन्तु अचानक आसमान पर चढ़े हुए उनके अरमान पृथ्वीतल पर चूर-चूर हो गए । एक हष्ट-पुष्ट व्यक्ति ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका, कारण पूछने पर उसने कहा कि "इस गिरिराज पर आरोहण करना हो तो पहले कर [टेक्स] भरना पडेगा अन्यथा आगे नहीं बढ़ सकते हो ।" आश्चर्यचकित हुए महात्मा ने कहा अरे भाई ! प्रभु के द्वार पर पहुँचने के लिए पैसे भरने पडते हैं ? अरे ! हम तो निष्परिग्रही हैं। हमारे पास पैसा कहाँ से आए? उस व्यक्ति ने कहा, "महाराज ! दूसरी, तीसरी बातें किए बिना पहले कर की रकम चुकाओ, फिर आगे बढो !" महात्मा पीछे मुडे... यह दुराग्रही किसी भी तरह माने वैसा नहीं था। वे सोचने लगे कि यह कैसी विचित्रता है जो विश्व विभूति को मिलने के लिए भी मूल्य चुकाना पडता है? यह तो बिल्कुल सहन हो सके वैसा नहीं है। बस ! इस मनोमंथन ६२
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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