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और इस खान में से बाहर निकलने का उपाय पूछा । तब वह कहता है, "कल सुबह इस खान में अधिष्ठायक रत्नचंद्र नामक देव की पूजा करने के लिए देवांगनाएँ आयेंगी । उस वक्त अनेक गीत गान और नृत्य के द्वारा रलचंद्र देव की पूजा करेंगे। जब गीतगान-संगीत और नृत्य क्रिया में देव मग्न हो जाए तब उनके सेवकों के साथ तू बाहर निकल जाना । बाहर आने के बाद देव तुझे कुछ भी कर नहीं सकेगा । यह बात सुनकर आनंदित भीमसेन ने उस महापुरुष के साथ बातचीत करके दिन बिताया। सुबह देवांगनाएँ रलचंद्र देव की पूजा-भक्ति करने के लिए दिव्यध्वनि और वाणित्रों के साथ विमान में बैठकर महोत्सवपूर्वक आगमन करती हैं। अधिष्ठायक रत्नचंद्र का चित्त गीत संगीत में मग्न होता है, तब मौका देखकर भीमसेन देव के सेवकों के साथ तत्काल खान में से बाहर निकल जाता है। धीरे-धीरे रास्ता काटता हुआ भीमसेन बहुत दिनों के बाद सिंहलद्वीप के मुख्य नगर क्षितिमंडनपुर में आता है। वहाँ किसी श्रेष्ठी के मालगृह में सेवक बनकर काम करता है। परंतु बचपन से चोरी के कुसंस्कारों की वजह से भीमसेन मालगृह में भी चोरी करना शुरु कर देता है।
एक बार रक्षकों द्वारा चोरी के समाचार मिलने पर भीमसेन को बाँधकर नगर में, "यह चोर है" इस जाहेरात के साथ गली-गली में घुमाकर, फासी देने के लिए लाते हैं, तभी उसने पहले किये हुए प्रचंड पुण्योदय के कारण उस वक्त व्यापार के लिए निकले हुए ईश्वरदत्त उधर से गुजरते हैं। उनकी नजर भीमसेन पर गिरती है, तब उनको समुद्र में फसे हुए जहाज को बाहर निकालने के लिए मददगार बने हुए भीमसेन के उपकार का स्मरण होता है। उपकारों की ऋणमुक्ति के लिए राजा को विनंती करके भीमसेन को छुडवाते हैं। और उनको अपने साथ जहाज में बिठाकर पृथ्वीपुरनगर ले आते हैं। एकबार एक परदेशी को बात-बात में भीमसेन खुद के दुःख की कहानी सुनाता है । तब वह कहता है कि, "तू दुःखी मत हो ! मेरे साथ चल ! हम दोनों रोहणाचल में रत्न की खोज के लिए जायें ।" दोनों रोहणाचल की तरफ जाने के लिए निकल पडते हैं । तब मार्ग में एक तापस के आश्रम में जटिल नामक वृद्ध तापस को देखकर नमस्कार करते हैं और उनके चरणों में बैठ जाते हैं । उस दौरान जटिल तापस का जांगल नामक शिष्य आकाशमार्ग से नीचे उतरता है। उसके गुरु जटिल तापस को पंचांग प्रणिपात पूर्वक नमस्कार करके उनके चरणों में बैठ जाता है। बहुत दिनों से आये हुए शिष्य जांगल को जटिल तापस कहते हैं कि, "हे पत्र ! अभी त कहाँ से आ रहा है? इतने दिनों तक कहाँ था?" जांगल कहता है, "स्वामी ! अभी मैं सोरठदेश के श्री शत्रुजय-गिरनार की यात्रा करके सीधा यहा आया है। उन दो तीर्थों की संपूर्ण महिमा का वर्णन करने के लिए कौन समर्थ बन सकता है ? केवलज्ञानी केवलज्ञान के द्वारा उस महिमा को जान सकते हैं, परंतु वर्णन करने के लिए तो वे भी समर्थ नहीं
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