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________________ राजर्षि भीमसेन इस जंबुद्वीप के भरतक्षेत्र में श्रावस्ती नाम की एक श्रेष्ठ नगरी थी । जहाँ जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति में तत्पर, लोकहित के लिए व्रत धारण करनेवाले, सर्व गुणों से अलंकृत वज्रसेन नामक परम श्रावक राजा न्यायपूर्वक राज्य करते थे। उनकी अत्यंत शीलवान सुभद्रा नाम की पत्नी थी। जिनकी कुक्षी से भीमसेन नामक पुत्र ने जन्म लिया था । भीमसेन अत्यंत दुष्ट प्रकृतिवाला, जुआ आदि सात व्यसनों में चकचूर, अत्याचार करके निरपराधी लोगों को परेशान किया करता था । स्वभाव की विचित्रता और अनेक दोषों का भण्डार होने के कारण माता-पिता और गुरुजन हमेशा उसकी अवगणना करते थे। राजा वज्रसेन ने कुलक्षण वाले भीमसेन को युवराज पद पर स्थापित किया। सांप को दूध पिलाने के समान अब वह परस्त्री और परद्रव्यादि को चुराकर, सर्व प्रजाजनों को अत्यंत दु:ख देता था । प्रजाजन उसके अन्याय से बहुत ही परेशान हो गये थे। अंत में भीमसेन के दुर्व्यवहार से परेशान होकर प्रजा ने इकट्ठा होकर महाराज को विनंती की, "हे महाराजाधिराज! हमें राजपुत्र के अपराधों को आपके समक्ष कहना नहीं चाहिये, परंतु उनके अत्याचार को हम ज्यादा सहन नहीं कर सकते । इसलिए आप कृपालु के समक्ष हम दया की झोली फैला रहे हैं । महाराज ! राजकुमार के दुष्ट व्यवहार से हम सब परेशान हो गये हैं अत: आप स्वामी को जो योग्य लगे वह करने की नम्र विनंती हम कर रहे हैं।" प्रजाजनों की विनंती सूनकर उनको आश्वासन देकर राजा ने बिदा किया। थोडी देर के बाद राजा भीमसेन को एकान्त में बुलाकर हितवचनों द्वारा समझातें हैं, कि "हे पुत्र ! तू अन्याय का त्याग कर । न्याय पूर्वक प्रजा का पालन कर । प्रजा से ही राजा की शोभा है। प्रजा के बगैर राजा तो मात्र नाम का राजा है। न्यायधर्म में तत्पर ऐसे राजा को राजसंपत्ति की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में भी कहा है कि, "परस्त्री-परद्रव्य का हरण करना योग्य नहीं है। माता-पिता, गुरु और परमात्मा की भक्ति मुख्य कहलाती है। सर्वत्र न्याय करने योग्य है - और अन्याय तो दूर से ही त्याग करना चाहिए। स्ववचन का पालन, धीरज रखना, सातव्यसन का त्याग करना यही महाराज का प्रायः श्रेष्ठ धर्म है। जिसके पालन करने से यश, कीति, लक्ष्मी और स्वर्ग की प्राप्ति होती है" इस तरह समय-समय पर हितवचनों के द्वारा समझाने के बावजूद भी भीमसेन अधिकाधिक अन्याय करने लगा। राजा वज्रसेन ने हितशिक्षा द्वारा असाध्य भीमसेन को कारावास में डाल दिया। वहाँ भी कुमित्रों की झूठी शिक्षा से प्रेरित होकर एक दिन क्रोध में माता-पिता की हत्या करता है। पिताजी की मृत्यु के बाद स्वयं राजगद्दी पर बैठकर, कुसंगत के सहवास ३८
SR No.009951
Book TitleChalo Girnar Chale
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemvallabhvijay
PublisherGirnar Mahatirth Vikas Samiti Junagadh
Publication Year
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size450 KB
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