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DEVIPULIBO01.PM65 (95) (तत्त्वार्थ सूत्र ************* अध्याय -) चलन करता है तो सब ओर से कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। जैसे आग से तपा हुआ लोहे का गोला जल मे पड कर सब ओर से पानी को खींचता है वैसे ही आत्मा योग और कषाय के द्वारा कर्म योग्य पुदगलों को ग्रहण करता है इसीका नाम बन्ध है। इस सूत्र मे 'कर्मयोग्यान' न कहकर जो 'कर्मणो योग्यान' कहा है उससे इस सूत्र में एक विशेष बात बतलायी है। वह यह है कि जीव कर्म की जगह से सकषाय होता है और कषाय सहित होने से कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। इससे यह बतलाया है कि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है। पर्व बद्ध कर्म का उदय आने पर जीव में कषाय पैदा होती है और कषाय पैदा होने से नवीन कर्मों का बन्ध होता है। इस तरह कर्म को कषाय और कषाय से कर्म की परम्परा अनादि काल से चली आती है। यदि ऐसा न मानकर बन्ध को सादि माना जाये, अर्थात यह माना जाये कि पहले जीव अत्यन्त शुद्ध था, पीछे उसके कर्म बन्ध हुआ तो जैसे अत्यन्त शुद्ध मुक्त जीवों के कर्म बन्ध नहीं होता वैसे ही जीव के भी कर्म बन्ध नहीं हो सकेगा। अतः यह मानना पड़ता है कि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है । जैसे खाया हुआ भोजन उदराग्नि के अनुसार खल भाग और रस भाग रूप हो जाता है वैसे ही तीव्र, मन्द या मध्यम जैसी कषाय होती है उसी के अनुसार कर्मों में स्थिति और अनुभाग पड़ता है। तथा जैसे आतशी काँच के वर्तन में पड़े अनेक प्रकार के रस, बीज, फूल और फल गर्मी खा कर शराब रुप हो जाते हैं वैसे ही आत्मा में स्थित पुदगल परमाणु योग और कषाय की वजह से कर्म रूप हो जाते हैं। इसी को बन्ध कहते हैं ॥२॥ इसके बाद बन्ध के भेद कहते हैंप्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशास्तद्विधयः ||३||
अर्थ - प्रकृति बन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध ये बंध के चार भेद हैं।
(तत्वार्थ सूत्र
अध्याय :D विशेषार्थ- प्रकृति स्वभाव को कहते हैं । जैसे नीम का स्वभाव कडुआपन है, गुड का स्वभाव मीठापन है। इसी तरह ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव ज्ञान को ढाँकना है , दर्शनावरण का स्वभाव वस्तु के सामान्य प्रतिभास को न होने देना है, वेदनीय का स्वभाव सख-दःख का वेदन है। दर्शन मोह का स्वभाव तत्वार्थ का श्रद्धान न होने देना है। चारित्र मोह का स्वभाव संयम को रोकना है। आय का स्वभाव जीव को किसी एक भव में रोके रखना है, नाम कर्म का स्वभाव नारक तिर्यञ्च आदि कहलाना है। गोत्र का स्वभाव ऊँच नीच व्यवहार कराना है। अन्तराय का स्वभाव दान वगैरह मे विघ्न डालना है। कर्मरूप पुद्गल परमाणुओं में इस प्रकार के स्वभाव पड़ना प्रकृति बन्ध है । तथा इस स्वभाव का न छूटना स्थिति है। जैसे बकरी, गाय, भैंस, वगैरह का दूध जब तक अपने मिष्ट स्वभाव को नहीं छोडता तब तक उसकी स्थिति कहलाती है। वैसे ही ज्ञानावरण आदि कर्म जितने समय तक अपने स्वभाव को नहीं छोडते तब तक कर्मरूप बने रहते हैं, उतनी उनकी स्थिति होती है। इस स्थिति के बंधने को स्थिति बंध कहते हैं। तथा जैसे बकरी, गो और भैंस के दूध मे कम ज्यादा शक्ति होती है वैसे ही कर्मों में जो तीव्र या मन्द फल देने की शक्ति पड़ती है उसे अनुभव या अनुभाग बंध कहते हैं । जो पुदगल स्कन्ध कर्मरूप होते है परमाणु के द्वारा उनका प्रमाण निश्चय होना कि इतने कर्म परमाणुओं का बन्ध हुआ सो प्रदेश-बन्ध है। इस तरह बन्ध के चार भेद हैं। इनमें से प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध तो योग से होते है और स्थिति बंध तथा अनुभाग बंध कषाय से होते हैं । योग और कषाय के तीव्र या मंद होने से इन बन्धो में अन्तर पड जाता है ॥३॥ आगे प्रकृति बन्ध के भेद कहते हैं
आद्यो ज्ञान- दर्शनावरण-वेदनीयमोहनीयायु-र्नाम-गोत्रान्तराया: ||४||
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