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(तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - कहा है- जीव जिये या मरे जो अत्याचारी है उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है। किंतु जो यत्नाचार से काम करता है उसे हिंसा होने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता । अतः हिंसा रूप परिणाम ही वास्तव में हिंसा है। द्रव्य हिंसा को तो केवल इसलिए हिंसा कहा है कि उसका भाव हिंसा के साथ संबंन्ध हैं । किन्तु द्रव्या हिंसा होने पर भाव-हिंसाका होना अनिवार्य नहीं हैं । जैनेतर धर्मो में द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा को अलग अलग न मानने से ही निम्न शंका की गयी है कि जल में जन्तु हैं थल में जन्तु हैं, और पहाड़ की चोटी पर चले जाओ तो वहाँ भी जन्तु हैं । इस तरह जब समस्त लोक जन्तुओं से भरा हुआ है तो कोई अहिंसक कैसे हो सकता है? जैन धर्ममें इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया है-"जीव दो प्रकारके होते हैं सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म तो न किसीसे रुकते हैं और न किसीको रोकते हैं अतः उनका तो कोई प्रश्न ही नहीं । रहे स्थूल, सो जिनकी रक्षा करना संभव है उनकी रक्षा की जाती है। अतः संयमी पुरुष को हिंसा का पाप कैसे लग सकता है ?" ॥१३॥ अनृतका लक्षण कहते हैं
असदभिधानमनृतम् ||१४|| अर्थ- जिससे प्राणियों को पीड़ा पहुँचती हो, वह बात सच्ची हो अथवा झूठी हो उसका कहना अनृत अथवा असत्य है। जैसे काने मनुष्यको काना कहना झूठ नहीं है फिर भी इससे उसको पीड़ा पहुँचती है इसलिए ऐसा कहना असत्य ही है। आशय यह है तथा जैसा पहले ही लिख आये हैं कि प्रधान व्रत अहिंसा है। बाकी के चार व्रत उसीके पोषण और रक्षण के लिए हैं। अतः जो वचन हिंसाकारक है वह असत्य है ॥१४॥ क्रम प्राप्त चोरीका लक्षण कहते हैं
अदत्तादानं स्तेयम् ||१७|| अर्थ- बिना दी हुई वस्तुका लेना चोरी है। यहाँ भी प्रमत्त योगात्
तत्त्वार्थ सूत्र *************अध्याय .) इत्यादि सूत्र से प्रमत्तयोग पदकी अनुवृत्ति होती है। अत: बुरे भाव से जो परायी वस्तुको उठा लेने में प्रवृत्ति की जाती है वह चोरी है। उस प्रवृत्ति के बाद चाहे कुछ हाथ लगे या न लगे, हर हालत में उसे चोरी ही कहा जायेगा ॥१५॥ इसके बाद अब्रहाका लक्षण बतलाते हैं
मैथुनमब्रह्म ।।१६।। अर्थ-चारित्र मोहनीय का उदय होने पर राग भाव से प्रेरित होकर स्त्री-पुरूष का जोडा जो रति सुख के लिए चेष्टा करता है उसे मैथुन कहते हैं। मैथुन को ही अब्रह्म कहते हैं। कभी-कभी दो पुरूषों में अथवा दो स्त्रियों में भी इस प्रकार की कुचेष्टा देखी जाती है। कभी-कभी अकेला एक पुरूष ही काम से पीडित होकर कुचेष्टा कर बैठता है। वह सब अब्रह्म है। जिसके पालन से अहिंसा आदि धर्मो की वृद्धि होती है उसे ब्रह्म कहते हैं और ब्रह्म का नहीं होना अब्रह्म है। यह अब्रह्म सब पापों का पोषक है; क्योकि मैथुन करनेवाला हिंसा करता है, उसके लिए झूठ बोलता है, चोरी करता है, और विवाह करके गृहस्थी बसाता है ॥१६॥ अब परिग्रह का लक्षण कहते हैं -
मूर्छा परिग्रह : ||१७|| अर्थ-बाह्य गाय, भैंस, मणि, मुक्ता, वगैरह चेतन-अचेतन वस्तुओं 'में तथा आन्तरिक राग, द्वेष, काम, क्रोधादि विकारों में जो ममत्व भाव है, कि ये मेरे हैं, इस भाव का नाम मूर्छा है और मूर्छा ही परिग्रह है। वास्तव में अभ्यन्तर ममत्व भाव ही परिग्रह है क्योंकि पास मे एक पैसा न होने पर भी जिसे दुनिया भर की तृष्णा है वह परिग्रही है। बाह्य वस्तुओं को तो इसलिए परिग्रह कहा है कि वे ममत्व भाव के होने मे कारण होती है।
अब व्रती का स्वरूप कहते हैं
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