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(तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय .D
सप्तम अध्याय
आस्रव तत्त्वका कथन हो चुका । उसमें पुण्यकर्म के आस्रव का मामूली-सा कथन किया था । इस अध्यायमें उसका विशेष कथन करने के लिए व्रत का स्वरूप बतलाते हैंहिंसाऽनृत-स्तेयाबहा-परिग्रहेभ्यो विरतिर्वतम् ||१||
अर्थ-हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रहसे विरत होनेको व्रत कहते हैं।
विशेषार्थ - हिंसा आदि पापों का बुद्धिपूर्वक त्याग करने को व्रत कहते हैं । इन पाँचों पापों का स्वरूप आगे बतलायेंगे । उनको त्यागने से अहिंसा, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच व्रत होते हैं । इन सबमें प्रधान अहिंसा व्रत है इसीसे उसे सब व्रतों के पहले रखा है। शेष चारों व्रत तो उसी की रक्षाके लिए हैं । जैसे खेत में धान बोने पर उसकी रक्षा के लिये चारों और बाड़ा लगा देते हैं वैसे ही सत्य आदि चार व्रत अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए बाड़ रूप हैं।
शंका - इन व्रतों को आस्रव का हेतु बतलाना ठीक नहीं हैक्योंकि आगे नौवें अध्याय में संवर के कारण बतलायेंगे । उनमें जो दश धर्म हैं उन दश धर्मों में से संयम धर्म में व्रतों का अन्तर्भाव होता है। अतः व्रत संवरके कारण हैं आस्रव के कारण नहीं हैं ?
समाधान - यह ठीक नहीं है, संवर तो निवृत्ति रूप होता है, उसका कथन आगे किया जायेगा । और ये व्रत निर्वत्ति रूप नहीं हैं किंत प्रवत्ति रूप हैं । क्योंकि इनमें हिंसा, झूठ, चोरी वगैरह को त्यागकर अहिंसा करने का, सच बोलने का, दी हुई वस्तुको लेने का विधान है। तथा जो इन व्रतों का अच्छी तरह से अभ्यास कर लेता है वही संवर को आसानी से कर सकता है। अतः व्रतों को अलग गिनाया है ॥१॥
तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय - अब व्रतों के भेद बतलाते हैं
देश-सर्वतोऽणु-महती ||२|| अर्थ- इन पाँचों पापों को एक देश से त्याग करने को अणुव्रत कहते हैं, और पूरी तरह से त्याग करने को महाव्रत कहते हैं ॥२॥ इन व्रतों की रक्षा के लिये आवश्यक भावनाओं को बतलाते हैं
तत्स्थै र्यार्थ भावना: पञ्च पञ्च ||३|| अर्थ- इन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रतकी पाँच पाँच भावनाएँ हैं। उन भावनाओं का सदा ध्यान रहने से व्रत दृढ़ हो जाते हैं ॥३॥ सर्व प्रथम अहिंसा व्रत की भावनाएँ कहते हैंवाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्या
लोकितपानभोजनानिपञ्च ||४|| अर्थ-वचन गुप्ति, मनो गुप्ति, ईर्यासमिति, आदान-निक्षेपण समिति और आलोकित-पानभोजन ये पांच अहिंसा व्रतकी भावनाएँ हैं।
विशेषार्थ - वचनकी प्रवृत्तिको अच्छी रीतिसे रोकना वचन गुप्ति है। मनकी प्रवृत्तिको अच्छी रीतिसे रोकना मनोगुप्ति है। पृथ्वी को देखकर सावधानता पूर्वक चलना ईर्यासमिति है। सावधानता पूर्वक देखकर वस्तुको उठाना और रखना आदान निक्षेपण समिति है। दिन में अच्छी तरह देख भाल कर खाना पीना आलोकित-पान भोजन है। इन पाच बातों का ध्यान अहिंसा व्रती को रखना चाहिए ॥४॥
दूसरे सत्यव्रत की भावनाएँ कहते हैंक्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पंच ||७||
अर्थ-क्रोध का त्याग, लोभका त्याग, भयका त्याग, हंसी दिल्लगी
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