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(तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय .D विशेषार्थ - अपनी जाति को न छोड़कर चेतन या अचेतन द्रव्य में नई पर्याय के होने को उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्डे में घट पर्याय होती है। पहली पर्याय के नष्ट होने का व्यय कहते हैं। जैसे, घट पर्याय के उत्पन्न होने पर मिट्टी का पिण्ड रूप आकार नष्ट हो जाता है। तथा पूर्व पर्याय का नाश और नई पर्याय का उत्पाद होने पर भी अपने अनादि स्वभावको न छोडना ध्रौव्य है। जैसे पिण्ड आकार के नष्ट हो जाने पर
और घट पर्याय के उत्पन्न होने पर भी मिट्टी कायम रहती है। प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों धर्म एक साथ पाये जाते हैं; क्योंकि नई पर्याय का उत्पन्न होना ही पहली पर्याय का नाश है और पहले की पर्याय का नाश होना ही नई पर्याय का उत्पाद है। तथा उत्पाद होने पर भी द्रव्य वही रहता है और व्यय होने पर भी द्रव्य वही रहता है। जैसे कुम्हार मिट्टी का लौदा लेकर और उसको चाक पर रख कर जब घुमाता है तो क्षण-क्षण में उस मिट्टी की पहली- पहली हालत बदलकर नई-नई हालत होती जाती है और मिट्टी की मिट्टी बनी रहती है। ऐसा नहीं है जो मिट्टी की नई हालत तो हो जाये
और पहली हालत न बदले । या पहली हालत नष्ट हो जाये और नई हालत पैदा न हो । अथवा इन हालतों के अदलने-बदलने से द्रव्य भी और का और हो जाये । यदि केवल उत्पाद को ही माना जाये और व्यय तथा ध्रौव्य को न माना जाये तो नई वस्तु का उत्पन्न होना ही शेष रहा । ऐसी स्थिति में बिना मिट्टी के ही घट बन जायेगा । तथा यदि वस्तु का विनाश ही माना जाय और उत्पाद तथा ध्रौव्य को न माना जाये तो घड़े के फूट जाने पर ठीकरे या मिट्टी कुछ भी शेष न रहेंगे। इसी तरह यदि केवल ध्रौव्य को ही माना जाये और उत्पाद-व्यय को न माना जाय तो जो वस्तु जिस हालत में है वह उसी हालत में बनी रहेगी और उसमें किसी भी तरह का परिवर्तन नहीं हो सकेगा । किन्तु ये सभी बातें प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं। प्रत्यक्ष देखा जाता है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है- उसमें प्रति समय रद्दोबदल होती है। फिर भी जो सत् है उसका सर्वथा विनाश नहीं होता और जो
(तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय -D सर्वथा असत् है उसका उत्पाद नहीं होता । तथा परिवर्तन के होते हुए भी वस्तु का मूल स्वभाव अपरिवर्तित रहता है- जड़ चेतन नहीं हो जाता और न चेतन जड़ हो जाता है। अतः जो सत् है वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप ही है। उसे ही द्रव्य कहते हैं ॥३०॥ आगे नित्यका स्वरूप बतलाते हैं
तद्भावाव्ययं नित्यम् ||३१|| अर्थ- वस्तु के स्वभाव को तद्भाव कहते हैं और उसका नाश न होना नित्यता है।
विशेषार्थ - यद्यपि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है किंतु परिवर्तन के होते हुए भी वस्तु में कुछ ऐसी एक रूपता बनी रहती है जिसके कारण हम उसे कालान्तर में भी पहचान लेते हैं कि यह वही वस्तु है जिसे हमने पहले देखा था । उस एकरूपता का नाम ही नित्यता है। आशय यह है कि जैन धर्म में प्रत्येक वस्तु को जब प्रतिसमय परिवर्तनशील बतलाया तो यह प्रश्न पैदा हुआ कि जब प्रत्येक वस्तु परिवर्तन शील है तो वह नित्य कैसे है? इसका समाधान करने के लिए सूत्रकार ने बतलाया कि नित्यका मतलब यह नहीं है कि जो वस्तु जिस रूप में है वह सदा उसी रूप में बनी रहे और उसमें कुछ भी परिणमन न हो । बल्कि परिणमन के होते हुए भी उसमें ऐसी एकरूपता का बना रहना ही नित्यता है जिसे देखकर हम तुरन्त पहचान लें कि यह वही वस्तु है जिसे पहले देखा था ॥३१॥
उक्त कथन का यह अभिप्राय हुआ कि वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है। ऐसी स्थिति में यह शंका होती है कि जो नित्य है वह अनित्य कैसे? इसके समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
अर्पितानर्पितसिद्धेः ||३|| अर्थ- मुख्यको अर्पित कहते हैं और गौण को अर्पित कहते हैं।
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