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(तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय .) क्या जीव भी द्रव्य है ?
जीवाश्च ||३|| अर्थ-जीव भी द्रव्य है। यहाँ 'जीवा:' बहुवचन दिया है। अतः जीव द्रव्य बहुत से हैं ऐसा समझना ॥३॥ अब इन द्रव्यों के बारे मे विशेष कथन करते हैं -
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ||४|| अर्थ- ये ऊपर कहे द्रव्य नित्य हैं, अवस्थित हैं और अरूपी हैं। विशेषार्थ - प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के गुण पाये जाते हैं -विशेष और सामान्य । जैसे धर्म द्रव्य का विशेष गुण तो गति में सहायक होना है और सामान्य गुण अस्तित्व है । इसीतरह सब द्रव्यों में सामान्य और विशेष गुण पाये जाते हैं। कभी भी द्रव्यों के इन गुणों का नाश नहीं होता। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है वह स्वभाव सदा रहता है। अतः सभी द्रव्य नित्य हैं। तथा इनकी संख्या भी निश्चित है। न तो ये छह से बढ़ कर सात होते हैं और न कभी छह से घट कर पाँच होते हैं सदा छह के छह ही रहते हैं। इससे इन्हें अवस्थित कहा है। तथा इनमें रूप, रस, वगैरह नही पाया जाता । इसलिए ये अरूपी अर्थात् अमूर्तिक हैं ॥४॥
सब द्रव्यों को अरूपी कहने से पुदगल भी अरूपी ठहरता । अत: उसके निषेध के लिए सूत्र कहते हैं
रूपिण: पुद्गलाः ||७|| अर्थ- पुदगल द्रव्य रूपी है। विशेषार्थ- यहाँ रूपी कहने से रूप के साथ साथ रहने वाले स्पर्श, रस, गंध को भी लेना चाहिये ; क्योंकि ये चारों गुण साथ ही रहते हैं। पुदगला: शब्द बहुवचन हैसो यह बतलाता हैकिपुदगल द्रव्य भी बहुत है।॥५॥
तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय - आगे बतलाते हैं कि जैसे जीव द्रव्य बहुत हैं, पुद्गल द्रव्य भी बहुत हैं वैसे धर्मादि द्रव्य बहुत नहीं हैं
आ आकाशादेकद्रव्याणि ||६|| अर्थ-धर्म, अधर्म और आकाश एक एक द्रव्य हैं। विशेषार्थ- इन तीनों द्रव्यों को एक एक बतलाने से यह स्पष्ट है कि बाकी के द्रव्य अनेक हैं । जैन सिद्धांत में बतलाया है कि जीव द्रव्य अन्तानन्त हैं। क्योंकि प्रत्येक जीव एक स्वतंत्र द्रव्य है। जीवों से अनन्त गुने पुदगल द्रव्य हैं, क्योकि एक एक जीव के उपभोग में अनन्त पुदगल द्रव्य हैं । काल द्रव्य असंख्यात हैं ; क्योंकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु स्थित रहता है । तथा धर्म, अधर्म, और आकाश द्रव्य एक एक हैं ॥६॥ क्रमशः इन एक-एक द्रव्यों के विषय में और अधिक कहते हैं
निष्क्रियाणि च ||७|| अर्थ- धर्म, अधर्म, और आकाश द्रव्य क्रिया रहित हैं, इनमें हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती । अतः ये तीनों द्रव्य निष्क्रिय हैं।
शंका - जैन सिद्धान्त में माना है कि प्रत्येक द्रव्य मे प्रति समय उत्पाद, व्यय हुआ करता है। किन्तु यदि धर्म आदि निष्क्रिय हैं तो उन में उत्पाद नहीं हो सकता, क्योंकि कुम्हार मिट्टी को चाक पर रख कर जब घुमाता है तभी घड़े की उत्पति होती है। अतः बिना क्रिया के उत्पाद नहीं हो सकता और जब उत्पाद नहीं होगा तो व्यय (विनाश) भी नहीं होगा।
समाधान - धर्म आदि निष्क्रिय द्रव्यों में क्रिया पूर्वक उत्पाद नहीं होता किन्तु दूसरे प्रकार से उत्पाद होता है। उत्पाद दो प्रकार का माना हैएक स्व-निमित्तक दूसरा पर-निमित्तक । जैन आगम में अगुरुलघु नाम के अनन्त गुण माने गये हैं जो प्रत्येक द्रव्य में रहते हैं । उन गुणों में छह