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तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - भूमिया तिर्यञ्च यदि मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यदृष्टि हों तो भवनत्रिक में जन्म लेते हैं और यदि सम्यग्दृष्टि हो तो पहले या दूसरे स्वर्ग मे जन्म लेते हैं । कर्म भूमिया मनुष्य यदि मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टि हो तो भवनवासी से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक जन्म ले सकते हैं । किन्तु जो द्रव्य से जिनलिंगी होते हैं वे ही मनुष्य ग्रैवेयक तक जा सकते हैं । तथा अभव्य मिथ्यादृष्टि भी जिनलिंग धारण करके तप के प्रभाव से उपरिम ग्रैवेयक तक मर कर जा सकता है। परिव्राजक तापसी मर कर पाँचवें स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं। आजीवक सम्प्रदाय के साधु बारहवें स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं। बारहवें स्वर्ग से ऊपर अन्य लिंगवाले साधु उतपन्न नहीं होते । र्निग्रन्थ लिंग के धारक यदि द्रव्यलिंगी हों तो उपरिम ग्रैवेयक तक और भावलिंगी हो तो सर्वार्थसिद्धि तक जन्म ले सकते हैं । तथा श्रावक पहले से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक ही जन्म ले सकता है। इसी तरह जैसी जैसी कषाय की मन्दता होती है उसी के अनुसार ऊपर ऊपर के कल्पों में जन्म होता है। इसी से ऊपर के देव मंद कषायी होते हैं ॥२१॥ अब वैमानिक देवों की लेश्या बतलाते हैंपीत-पद्म-शुक्ल लेश्या द्धि-त्रि-शेषेषु ॥रशा अर्थ-सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देवों में पीत लेश्या है। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देवों में पीत और पद्म लेश्या है । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ठ स्वर्ग में पद्म लेश्या है । शुक्र , महाशुक्र , शतार और सहस्रार में पद्म और शुक्ल लेश्या है। शेष आनत आदि कल्पों में शुक्ल लेश्या है। उनमें भी अनुदिश और अनुत्तरो में परम सुक्त लेश्या है ॥२२॥ कल्प संज्ञा किसकी है यह बतलाते हैं
प्राग्ग्रेवेयकेभ्य: कल्पा: ||२३||
तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय -
अर्थ- सौधर्म से लेकर ग्रैवेयक से पहले अर्थात् सोलहवें स्वर्ग तक संज्ञा है; क्योकि जिनमें इन्द्र वगैरह की कल्पना पायी जाती है उन्हीं की कल्प संज्ञा है। अतः नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर कल्पातीत हैं; क्योंकि अहमिन्द्र होने से उनमें इन्द्र आदि की कल्पना नहीं हैं ॥२३॥ अब लोकान्तिक देवों का कथन करते हैं
ब्रह्मलोकालया लौकान्तिका : ||२४|| अर्थ- ब्रह्मलोक नाम के पाँचवे स्वर्ग मे रहने वाले देव लौकान्तिक है। उनका लौकान्तिक नाम सार्थक है; क्योकि लोक यानी ब्रह्मलोक, उसके अंत मे जो रहते हैं वे लौकांतिक हैं। अभिप्राय यह है कि जिन विमानों में लौकांतिक रहते हैं वे विमान ब्रह्मलोक के अंत में हैं । अथवा लोक यानी संसार । उसका अंत जिनके आ गया है वे लोकांतिक देव हैं क्योकि लौकांतिक देव मर कर और एक जन्म ले कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ॥२४॥ लौकांतिक देवों के भेद बतलाते हैं
सारस्वतादित्य-वह्नयरुण-गर्दतोय
तुषिता- व्याबाधारिष्टाश्च ।।29|| अर्थ- सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट, ये आठ प्रकार के लौकान्तिक देव हैं, जो ब्रह्मलोक स्वर्ग की पूर्वोत्तर आदि आठ दिशाओं में क्रम से रहते हैं, ये सभी स्वतंत्र हैं, किसी इन्द्र के आधीन नहीं हैं। सब समान हैं इनमे कोई छोटा और कोई बड़ा नहीं है। विषयों से विरक्त हैं इसी से इन्हे देवर्षि कहते हैं । अन्य देव इनकी बड़ी प्रतिष्ठा करते हैं ये चौदह पूर्व के पाठी होते हैं और जब तीर्थंकरों को वैराग्य होता है तो उस समय उन्हें प्रतिबोधन करने के उदेश्य से उनके पास जाते हैं ॥२५॥