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(तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - मुक्ति गढ़ के सुदृढ़ कपाट खोल कर प्रवेश करते हैं और सदा काल के लिये अनन्त सुख में निमग्न हो कृतकृत्य हो जाते हैं।
प्रायः यह कहा जाता है कि पंचम काल में मोक्ष तो होता नहीं इसलिये इसकी बात करना या इस ओर पुरूषार्थ करना बेकार है। जैन पुराणों के पढ़ने से यह जानकारी मिलती है कि मोक्ष प्राप्त करना साधारणतया एक भव के प्रयत्न का फल नहीं है बल्कि कई भवों के लगातार पुरूषार्थ करते रहने का फल है। जिन धर्म में अटूट श्रद्धा व जिन भक्ति के फल स्वरूप भव्य जीव को हर भव में उत्तरोत्तर मोक्ष मार्ग पर चलने के साधन मिलते रहते हैं । जिससे वह मोक्ष मार्ग में प्रगति करता हुआ किसी एक भव में सभी कर्मों की निर्जरा कर सिद्ध पद प्राप्त कर सकता है।
जिन सहधर्मियों को मोक्ष मार्ग में रूचि हो गई है या इस ओर कदम बढ़ रहे हैं वे जैन श्रावक के व्रत लेकर, सप्त व्यसन का त्याग व नियमित स्वाध्याय में कुछ काल प्रतिदिन व्यतीत करें और जिनवाणी में अटटू श्रद्धा रखें । दिगम्बर जैन धर्म के आचार्यों द्वारा लिखे गये मूल ग्रंथों से ज्ञान अर्जन करें । इस धर्म के अलवा और कोई मोक्ष मार्ग नहीं है बाकी सब धर्माभास हैं संसार में भटकाने के मार्ग हैं।
"तत्त्वार्थ सूत्र" मुक्ति मार्ग की प्रस्तावना है, जिनवाणी एक समुद्र है। समुद्र मंथन से रत्न प्राप्त होते हैं । जिनवाणी मंथन से सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान दो रत्न प्राप्त होते हैं । जिनभर्ति, सुपात्र को दान और शास्त्र स्वाध्याय मोक्ष मार्ग पर चलने का गृहस्थ के लिये प्रारंभिक कदम हैं पूर्ण उपाय तो दिगम्बर निर्गन्थ साधु बन कर ही कर सकते हैं तभी तीसरा रत्न 'सम्यकूचारित्र' प्राप्त होगा । इसलिये सम्यक् श्रद्धान को दृढ़ रखते हुये दिगम्बर साधु बनने की भावना भाते रहना चाहिये । ___ मैं अपने मित्र डॉ.शेखरचन्द्रजी जैन, अहमदाबाद का अत्यन्त आभारी हूं जिन्होंने अपना अमूल्य समय जिनवाणी की आराधना में इस ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु छपाई, प्रूफ रीडिंग आदि सभी कार्यों में पूर्ण सहयोग
(तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - प्रदान किया है। उनके प्रयत्न से ही यह ग्रन्थ आप तक पहुँच सका है। मैं अपने भाई श्री हीराचन्द जैन, अजमेर का भी बहुत आभारी हूँ जिन्होंने प्रथम संस्करण की प्रकाशक श्रीमती कनक जैन से इस ग्रंथ को पुनः प्रकाशित करने की अनुमति दिलवाने की सहायता प्रदान की। "तत्त्वार्थ सूत्र" की यह सरल हिन्दी टीका पंडित शिरोमणी कैलाशचन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिखी गई है। इस टीका से सामान्य जनों को जैन धर्म के गूढ़ सिद्धान्त आसानी से समझ में आ सकेंगे । आशा है स्वाध्याय प्रेमी सहधर्मी बन्धुजन इस से लाभ उठाकर आत्म साधना के पथ पर अग्रसर होंगे । इसी भावा से प्रेरित होकर यह द्वितीय संस्करण पाठकों को समर्पित है। सैन हॉजे केलिफोर्निया
विनीत महावीर जयन्ती
प्रकाशचन्द्र जैन ११ अप्रैल २००६
सुलोचना जैन
श्री जम्बूद्वीप रचना - हस्तिनापुर