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तत्त्वार्थ सूत्र * *** ******###अध्याय .) भी होते हैं । अतः अस्पष्ट पदार्थ का केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है और स्पष्ट पदार्थ के चारों ज्ञान होते हैं ॥१९॥
आगे बतलाते हैं कि जैसे अर्थावग्रह, ईहा वगैरह ज्ञान सभी इन्द्रियों से होते हैं वैसे व्यंजनावग्रह सभी इन्द्रियों से नहीं होता।
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् || १९ ।। अर्थ-चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता; क्योंकि चक्षु और मन पदार्थ को दूर से ही जानते हैं, उससे भिड़कर नहीं जानते । जैसे, चक्षु आँख्न में लगे अंजन को नहीं देख सकती, किन्तु दूरवर्ती पदार्थ को देख सकती है। इसी तरह मन भी जिन पदार्थों का विचार करता है वे उससे दूर ही होते हैं। इसी से जैन सिद्धान्त में चक्षु और मन को अप्राप्यकारी कहा है।शेष चारों इन्द्रियाँ अपने विषय को उससे भिड़कर ही जानती हैं। अतः व्यंजनावग्रह चार ही इन्द्रियों से होता है। इस तरह बहु आदि बारह विषयों की अपेक्षा व्यंजनावग्रह के ४८ भेद होते हैं। तथा पहले गिनाये हुए २८८ भेदों में इन ४८ भेदों को मिला देने से मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं ॥१९॥
इस तरह मतिज्ञान का स्वरूप कहा। आगे श्रुतज्ञान का स्वरूप कहते हैं
श्रुतं मतिपूर्व दयनेकद्वादशभेदं ||२०|| अर्थ- श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं। उनमें से एक भेद के अनेक भेद हैं और दूसरे भेद के बारह भेद हैं।
विशेषार्थ- पहले मतिज्ञान होता है। उसके बाद श्रुतज्ञान होता है। बिना मतिज्ञान हुए श्रुतज्ञान नहीं होता । यह बात दूसरी है कि श्रुतज्ञान होने के बाद फिर श्रुतज्ञान हो, किन्तु पहला श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है। उस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । अंगबाह्य के तो अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं- आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृ धर्म कथा, उपसकाध्ययन, अन्तःकृद्दश, ****** ***417 #########
(तत्त्वार्थ सूत्र ************ अध्याय - अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्न व्याकरण, विपाक सूत्र, दृष्टिवाद । भगवान तीर्थंकर ने केवलज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानकर दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश दिया। उनके साक्षात् शिष्य गणधर ने उस उपदेश को अपनी स्मृति में रखकर बारह अंगो में संकलित कर दिया । यह अंगप्रविष्ठ श्रुतज्ञान कहा जाता है। किन्तु ये अंग ग्रंथ महान और गंभीर होते हैं। अतः आचार्य ने अल्पबुद्धि शिष्यों पर दया करके उनके आधार पर जो ग्रंथ रचे, वे अंगबाह्य कहलाते हैं। ये सब अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद हैं। श्रुतज्ञान में उसी की मुख्यता है ॥२०॥
परोक्ष प्रमाण का कथन समाप्त हुआ । अब प्रत्यक्ष प्रमाण का वर्णन करते हुए सबसे प्रथम अवधिज्ञान का कथन करते हैं । अवधिज्ञान के दो भेद हैं- भवप्रत्यय और क्षयोपशम निमित्त । उनमें से प्रथम भवप्रत्यय अवधिज्ञान के स्वामी बतलाते हैं
भवप्रत्ययोऽवधिव-नारकाणाम् ।।२१।। अर्थ-भव प्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकियों के होता है। विशेषार्थ - अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होता है। और क्षयोपशम व्रत, नियम वगैरह के आचरण से होता है। किन्तु देवों और नारकियों में व्रत, नियम वगैरह नहीं होते । अतः उनमें देव और नारकियों का भव पाना ही क्षयोपशम के होने में कारण होता है। इसीसे उनमें होनेवाला अवधिज्ञान भव प्रत्यय- जिसके होने में भव ही कारण है, कहा जाता है। अर्थात् जो देव और नारकियों में जन्म लेता है उसके अवधि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हो ही जाता है। अत: वहाँ क्षयोपशम के होने में भव ही मुख्य कारण है। इतना विशेष है कि सम्यग्दृष्टियों के अवधि ज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टियों के कुअवधि ज्ञान होता है ॥२१॥
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