________________
DRIVIPULIBO01.PM65 (114)
(तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - दूसरों को उन तत्त्वों को समझाने के लिए युक्ति दृष्टान्त आदि का विचार करते रहना, जिससे दूसरों को ठीक-ठीक समझाया जा सके, आज्ञा विचय है; क्योंकि उसका उद्देश्य संसार में जिनेन्द्र देव की आज्ञा का प्रचार करना है। जो लोग मोक्ष के अभिलाषी होते हुए भी कुमार्ग में पड़े हुए हैं उनका विचार करना कि कैसे वे मिथ्यात्व से छटें, इसे अपाय विचय कहते हैं । कर्म के फलका विचार करना विपाक विचय है । लोक के आकार का तथा उसकी दशा का विचार करना संस्थान विचय है। ये धर्म ध्यान अविरत, देश विरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत गुणस्थान वाले जीवों के ही होते हैं ॥३६॥ अब शुक्ल ध्यान के स्वामी बतलाते हैं
शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ||३७|| अर्थ-आदि के दो शुक्ल ध्यान सकल श्रुत के धारक श्रुत केवली के होते हैं। 'च' शब्द से धर्मध्यान भी ले लेना चाहिए । अतः श्रेणि पर चढने से पहले धर्मध्यान होता है और श्रेणि चढ़ने पर क्रम से दोनों शुक्ल ध्यान होतें हैं ॥३७॥ अब बाकी के दो शुक्ल ध्यान किसके होते हैं, यह बतलाते हैं
परे केवलिन: ||३८|| अर्थ- अन्त के दो शुक्ल ध्यान सयोग केवली और अयोग केवली के होते हैं ॥३८॥ अब शुक्ल ध्यान के भेद बतलाते हैं - पृथक्त्वैकत्ववितर्क-सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति
व्युपरत-क्रियानिवर्तीनि ||३९|| अर्थ - पृथक्त्ववितर्क, एकत्व वितर्क, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति और व्युपरत क्रियानिवर्ति ये चार शुक्लध्यान के भेद हैं। ये सब नाम सार्थक हैं। 坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐坐203 座李李李李李李李李李
तत्त्वार्थ सूत्र * *********अध्याय - इनका लक्षण आगे कहेंगे ॥३९॥ अब शुक्लध्यान का आलम्बन बतलाते हैं -
त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ||४|| अर्थ- पहला शुक्लध्यान तीनों योगों में होता है। दूसरा शुक्लध्यान तीनों योगों में से एक योग में होता है। तीसरा शुक्लध्यान काय योग में ही होता है ॥४०॥ अब आदि के दो शुक्ल ध्यानों का विशेष कथन करते हैं
एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४१|| अर्थ-आदि के दोनों शुक्ल ध्यान पूर्ण श्रुतज्ञानी के ही होते हैं; अतः दोनों का आधार एक ही है। तथा दोनों वितर्क और वीचार से सहित है ॥४१॥ इस कथन में थोड़ा अपवाद करते हैं
अवीचारं द्वितीयम् ||४|| अर्थ- किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वीचार रहित है । अर्थात् पहला शुक्लध्यान तो वीतर्क और वीचार दोनों से सहित है । किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वीतर्क से सहित है पर वीचार से रहित है ॥४२॥ अब वीतर्क का लक्षण कहते हैं -
वीतर्क: श्रुतम् ||४३|| अर्थ-विशेष रूप से तर्क अर्थात् विचार करने को वितर्क कहते हैं। वितर्क नाम श्रुतज्ञान का है ॥४३॥ अब वीचार का लक्षण कहते हैं
वीचारोऽर्थ-व्यंजन-योगसंक्रांन्ति: ॥४४|| अर्थ-अर्थ से मतलब उस द्रव्य या पर्याय से है जिसका ध्यान किया