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________________ D:IVIPUL\BOO1.PM65 (111) (तत्वार्थ सूत्र ******* * **अध्याय क्या प्रायश्चित दिया है, क्योकि तेरे समान ही मेरा भी अपराध है। जो प्रायश्चित तुझे दिया है वही मेरे लिए भी युक्त है, यह तत्सेवी नाम का दोष है। इस तरह दोष रहित प्रमाद का निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित है। प्रमाद से जो दोष मुझ से हुआ वह मिथ्या हो इस तरह अपने किये हुए दोष के विरुद्ध अपनी मानसिक प्रतिक्रिया को प्रकट करना प्रतिक्रमण है। कोई अपराध तो केवल आलोचना से ही शुद्ध हो जाता है और कोई प्रितक्रमण से शुद्ध होता है और कोई आलोचना और प्रतिक्रमण दोनो से शुद्ध होता है यही तदुभय प्रायश्चित है। सदोष आहार तथा उपकरणों का संसर्ग होने पर उसका त्याग करना विवेक प्रायचित है। कुछ समय के लिए कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित है । अनशन आदि करना तप प्रायश्चित है । दीक्षा के समय को छेद देना, जैसे कोई बीस वर्ष की दीक्षित साधु है, अपराध करने के कारण उसकी दस वर्ष की दीक्षा छेद दी गयी अतः अब वह दस वर्ष का दीक्षित माना जायेगा और जो दस वर्ष के एक दिन अधिक के भी दीक्षित साधु है उन्हें इसे नमस्कार आदि करना होगा । यह छेद प्रायश्चित्त है। कुछ समय के लिए संघ से निकाल देना परिहार प्रायश्चित है। और पुरानी दीक्षा को छेदकर फिर से दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित है ॥२२॥ अब विनय तप के भेद कहते हैं - ज्ञान- दर्शन- चरित्रोपचाराः ||२३|| अर्थ- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय ये चार भेद विनय के हैं। आलस्य त्यागकर आदरपूर्वक सम्यग्ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना आदि ज्ञान विनय है । तत्वार्थ का शङ्का आदि दोषरहित श्रद्धा करना दर्शन विनय है। अपने मन को चारित्र के पालन में लगाना चारित्र विनय है। आचार्य आदि पज्य पुरुषों को देखकर तत्त्वार्थ सूत्र ############# अध्याय - उनके लिए उठना, सन्मुख जाकर हाथ जोड़कर वन्दना करना तथा परोक्ष में भी उन्हें नमस्कार करना, उनके गुणों का स्मरण करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, ये सब उपचार विनय हैं ॥२३॥ अब वैयावृत्य तप के भेद कहते हैंआचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष-ग्लान-गण कुल-संघ-साधु-मनोज्ञानाम् ||२४|| अर्थ- आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ, इन दस प्रकार के साधुओं की अपेक्षा से वैयावृत्य के दस भेद हैं। जिनके पास जाकर सब मुनि व्रताचरण करते हैं उन्हे आचार्य कहते हैं। जिनके पास जाकर मुनिगण शास्त्राभ्यास करते हैं उन्हे उपाध्याय कहते हैं । जो साधु बहुत व्रत उपवास आदि करते हैं उन्हे तपस्वी कहते हैं। जो साधु श्रुत का अभ्यास करते हैं उन्हे शैक्ष कहते हैं। रोगी साधुओं को ग्लान कहते हैं । वृद्ध मुनियों की परिपाटी में जो मुनि होते हैं उन्हें गण कहते हैं । दीक्षा देनेवाले आचार्य की शिष्य परम्परा को कुल कहते हैं। ऋषि, यति और अनगार के भेद से चार प्रकार के साधुओं के समूह को संघ कहते हैं । अथवा मुनि, आर्यिका का और श्रावक-श्राविका के समूह को संघ कहते हैं। बहुत समय के दीक्षित मुनि को साधु कहते हैं। जिसका उपदेश लोकमान्य हो अथवा जो लोक में पूज्य हो उस साधु को मनोज्ञ कहते हैं। इनको कोई व्याधि हो जाये या कोई उपसर्ग आ जाये या किसी का श्रद्धान विचलित होने लगे तो उसका प्रतिकार करना, यानी रोग का इलाज करना, संकट को दूर करना, उपदेश आदि के द्वारा श्रद्धान को दृढ करना वैयावृत्य है ॥२४॥ अब स्वाध्याय तप के भेद कहते हैंवाचना-पृच्छनाऽनुप्रेक्षाऽम्नाय-धर्मोपदेशाः ||२७|| अर्थ-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये पाँच **********41970 *** * **
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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