________________
तृतीय खण्डी [६९ रखके अर्थात् उत्क्रमहीन नहीं वर्तनके लिये व संसारयात्रा साधन व प्राण धारणके लिये चौदहमलरहित भोजन करते हैं
चौदहमलोंके नाम। · . णहरोमजन्तुअट्ठीकणकुंडयपूयिचम्मरुहिरमंसाणि । . . .. वीयफलकंदमूला छिण्णाणिं मला चउद्दसा होति ॥४८४॥ । भावार्थ-१ मनुष्य या पशुके हाथ पगके नख, २ मनुष्य या पशुके बाल, ३ मृतक जन्तु हेंद्रियादिक, ४ हड्डी, ५ यव गेहूं आदि बाहरी भाग कण, ६. धान आदिका भीतरका भाग अर्थात् कुंड्या चावल जो बाहर पका भीतर अपक्व होता है, ७ पीप, ८ चर्म, ९ रुधिर या खून, १० मांस, १.१ उगने योग्य गेहूं आदि, १२ फल आम्रादि, १३ कंद, नीचेका भाग जो उगसक्ता है, १४ मूल जैसे मूली अदरकादि ये अलग अलग चौदह मल होते हैं। इनसे भोजनका संसर्ग हो तो भोजन नहीं करना । इन १४ मलोंमेंसे पीप, खून, मांस, हड्डी, चर्म महा दोष हैं। इनके निकलनेपर भोजन भी छोडे और प्रायश्चित्त भी ले, तथा नख निकलने पर भोजन छोडे अल्प प्रायश्चित भी ले, और ढेंद्रिय तेंद्रिय व चौंद्रियका शरीर व बाल निकलनेपर केवल भोजन त्याग दे । तथा शेष ६ कण, कुण्ड, वीज, कण्द, मूल, फल इनके आहारमें होनेपर शक्य हो तो मुनि अलग करदे, न शक्य हो तो भोजनका त्याग करदे । .
साधुके भोजन लेनेका काल सूर्यके उदय होनेपर तीन घड़ी वीतनेपर व सूर्यके अस्त होनेके तीन घड़ी रहने तक ही योग्य है। सिद्ध भक्ति करनेके पीछे जघन्य भोजनकाल तीन महूर्त, मध्यम दो व उत्तम एक महूर्त हैं।