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५२] श्रीप्रवचनसारटोका। आएंगे उनको दूंगा, व जो कोई आनीवकादि तापसी आएंगे उनको दूंगा व जो कोई निर्ग्रन्थ साधु आएंगे उनको दूङ्गा । इस. तरह दसरोंके उद्देशको मनमें रखकर जो भोजन बनाया हो ऐसा भोजन जैन साधुको लेना योग्य नहीं।।
२-अध्याधिदोष या साधिकदोष-संयमीको आते देखकर अपने बनते हुए भोजनमें साधुके निमित्त और तंदुल आदि मिला देना अथवा संयमीको पड़िगाहकर उस समय तक रोक रखना जब तक भोजन तय्यार न हो।
३ प्रतिदोष-प्रासुक भोजनको अप्रासुक या सचित्तसे मिलाकर देना अथवा प्रासुक द्रव्यको इस संकल्पसे देना कि जबतक इस चूल्हेका बना द्रव्य साधुओंको न देलेंगे तब तक किसीको न न देंगे। इसी तरह जबतक इस उखलीका कूटा व इस दर्वी या कलछीसे व इस बरतनका व यह गंध या यह भोजन साधुको न देलेंगे तबतक किसी ने न देंगे इस तरह ५ प्रकार प्रति दोष है।
. ४-मिश्र दोष-जो अन्न अन्य साधुओंके और गृहस्थोंके साथ २ संयमी मुनियोंको देनेके लिये बनाया गया हो सो मिश्र दोष है।
५-स्थापित दोष या न्यस्तदोष-जो भोजन जिस बरतनमें वना हो वहांसे निकालकर दूसरे बरतनमें रख करके अपने घरमें व दूसरेके घरमें साधुके लिये पहले हीसे रख लिया जाय वह स्थापित दोष है । वास्तवमे चाहिये यही कि कुटुम्वार्थ भोजन बना हुआ अपने २ पात्रमे ही रक्खा रहे । कदाचित् साधु आजाय तो उसका भाग दानमें, देवे पहलेसे उद्देश न करे ।